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विचार मंथन

किसान आंदोलन को अन्ना हजारे के ‘आखिरी अनशन’ का साथ – तनवीर जाफरी

नए कृषि अध्यादेशों के विरुद्ध चलने वाला किसान आंदोलन जैसे जैसे और लम्बा खिंचता जा रहा है वैसे वैसे आंदोलन के पक्ष में जनसमर्थन भी बढ़ता जा रहा है। इसी क्रम में गत 15 जनवरी को कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रमुख नेताओं की अगुवाई में देश के अनेक राज भवनों के समक्ष किसानों के समर्थन में प्रदर्शन कर नए षि अध्यादेशोंका जमकर विरोध किया व इसे किसान विरोधी बताया। विभिन्न राज्यों में कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारियां भी हुईं। जिस समय कांग्रेस किसानों के पक्ष में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन कर रही थी ठीक उसी समय 83 वर्षीय गांधीवादी नेता व समाज सुधारक अन्ना हजारे भी अपने गांव रालेगन सिद्धि में किसानों को अपना समर्थन दे रहे थे तथा वे नए षि कानूनों को अन्याय पूर्ण बताते हुए पत्रकारों से रूबरू थे।अन्ना हजारे निश्चित रूप से भारतीय आंदोलन जगत का वर्तमान समय का सबसे बड़ा नाम हैं तथा अपने अनेक अनशन व आन्दोलनों से कई बार वे विभिन्न राज्य सरकारों व केंद्र सरकारों को अपने अनेक फैसले वापस लेने व अपनी जनहितकारी मांगें मनवाने के लिए बाध्य कर चुके हैं। वर्तमान किसान आंदोलन को अन्ना हजारे का समर्थन इसलिए और भी अहम है क्योंकि इस आंदोलन को बदनाम करने के लिए केंद्र सरकार के जिम्मेदार नेताओं की ओर से बार बार यह कोशिश की गयी कि इस आंदोलन को किसी तरह देश विरोधी आंदोलन साबित कर दिया जाए। इसके लिए तरह तरह के हथकंडे भी अपनाये गए व रणनीतियां भी बनाई गईं। किसान संगठनों में फूट डालने की कोशिश की गयी तो कभी अपने पक्ष में नई नवेली किसान यूनियन बनाकर उसका समर्थन मिलने जैसा ढोंग भी रचा गया। कभी कहा गया कि इस आंदोलन के पीछे कांग्रेस व कम्युनिस्ट जैसे राजनैतिक दल सक्रिय हैं। गोया विपक्षी दलों को विपक्ष की अपनी भूमिका अदा करने में भी सत्ताधारियों को तकलीफ हो रही है। बहरहाल इन सभी आरोपों,प्रत्यारोपों व विवादों के बीच अन्ना हजारे का यह एलान करना कि वे जनवरी माह के अंत में किसानों के समर्थन में दिल्ली में अपने जीवन का आख़िरी अनशन करेंगे,बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि वर्तमान सरकार के विरुद्ध विभिन्न मुद्दों को लेकर बार बार उभरने वाले जनाक्रोश के मध्य अन्ना हजारे की खामोशी उनके प्रति संदेह जरूर पैदा कर रही थी। खास तौर पर इस बात को लेकर कि जब 2011-12 में अन्ना हजारे ने कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मनमोहन सिंह सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेड़ी थी और जनलोकपाल बनाए जाने की मांग की थी उस समय वर्तमान सत्ताधारियों ने जोकि उस समय विपक्ष में थे,अन्ना हजारे के आंदोलन का खुलकर साथ दिया था। तब से लेकर अब तक विभिन्न मुद्दों पर अन्ना हजारे की खामोशी इस बात की तसदीक कर रही थी कि अन्ना हजारे के उस 2011 के आंदोलन के पीछे हो न हो भारतीय जनता पार्टी का ही हाथ था। यह शंका तब और मजबूत हो गयी जबकि अन्ना हजारे के आंदोलन के समय तक गैर राजनैतिक चेहरा बने रहने वाले पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल विक्रम सिंह व पूर्व आई पी एस अधिकारी किरण बेदी जैसे अन्ना समर्थकों ने इसी अन्ना आंदोलन से अपना चेहरा चमकाया और बाद में अन्ना का साथ छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। इनमें जहाँ विक्रम सिंह केंद्र में मंत्री के रूप में शोभायमान हैं वहीँ किरण बेदी पांडेचरी की लेफ्टिनेंट गवर्नर के पद पर विराजमान हैं। राजनीति में इतने बड़े पदों को प्राप्त करने के बाद भ्रष्टाचार के विरुद्ध परचम उठाने वाले इन अवसरवादी नेताओं को आजतक न तो जनलोकपाल के गठन की मांग करने की जरुरत महसूस हुई न ही गत 6-7 वर्षों में इन्हें कोई भ्रष्टाचार नजर आया। और इन्हीं नेताओं के साथ साथ अन्ना हजारे की खामोशी भी स्वभाविक रूप से संदेह पैदा कर रही थी। परन्तु अब अन्ना हजारे ने केंद्र सरकार को 2011 के उस आंदोलन को याद दिलाया है कि किस तरह 2011 में आपके वर्तमान मंत्रियों ने संसद के विशेष सत्र में मेरे आंदोलन की तारीफ की थी। अन्ना ने यह भी बताया कि वे कई बार षि कानूनों की कमियों को लेकर तथा किसान आंदोलन के प्रति अपनी चिंताओं को लेकर सरकार को कई पत्र लिख चुके हैं। परन्तु उनके किसी पत्र का अब तक कोई जवाब नहीं मिला। अन्ना के अनुसार वे अपने प्रस्तावित अनशन के संबंध में भी दिल्ली के संबध अधिकारियों को अनशन की अनुमति व अनशन स्थल हेतु पत्र लिख चुके हैं परन्तु उसका भी उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। अन्ना के पत्रों का उत्तर न देना अपने आप में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए काफी है कि यह सरकार आज उन्हीं अन्ना हजारे को कितनी गंभीरता से ले रही है कल जिनके कांधों पर सवार होकर इन्हीं ‘अवसरवादियों’ ने केंद्रीय सत्ता तक का सफर तय किया था। बहरहाल अन्ना हजारे का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा गया अपने ‘आखिरी अनशन’ संबंधी पत्र व उनकी किसानों के आंदोलन को दी जाने वाली हिमायत से जहाँ किसान आंदोलन को और बल मिलेगा वहीं यह अनशन किसान आंदोलन के उन आलोचकों व विरोधियों को भी असमंजस में डालेगा कि जो इस आंदोलन को कभी खालिस्तानी,कभी पाकिस्तानी,  कभी कांग्रेसी तो कभी कम्युनिस्ट,कभी माओवादी तो कभी दलालों व कमीशनखोरों का आंदोलन बताकर इसके महत्व को कम करने व इसे बदनाम करने की कोशिश कर रहे थे। देखना दिलचस्प होगा कि ऐसे किसान विरोधी लोग अब इसी किसान आंदोलन को अन्ना हजारे की ‘आखिरी अनशन’ का साथ मिलने के बाद भी इस आंदोलन को बदनाम करने के लिए अब और कौन सी नई थ्योरी गढ़ेंगे ?

कृषि कानूनः न तेरी जय न मेरी जय ?– प्रभुनाथ शुक्ल-

सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार कृषि कानूनों पर रोक लगा दिया। जब तक जांच कमेटी अपनी रिपोर्ट अदालत को नहीं सौंपती है तब तक इस पर रोक जारी रहेगी।किसान आंदोलन पर सुप्रीमकोर्ट ने सरकार को खरी- खरी सुनाई है। अदालत की यह तल्खी और नाराजगी सरकार की सांसत बढ़ा दिया है। निश्चित रूप से सरकार ने अडि़यल रुख अपना कर किसान आंदोलन को बेदम करना चाहती थी। सरकार खुले मन से इस विचार नहीं करना चाहती थी। केंद्रीय कृषिमंत्री नरेन्द्र तोमर और उनके साथ सहयोगी मंत्री किसान संगठनों की बैठक में खुले मन से भाग लेते थे लेकिन वह कानून को खत्म करना चाहती थी। जबकि किसान भी डेढ़ माह से जिद पर अड़े थे जिसकी वजह से बात नहीं बन पाई। सरकार और किसानों के बीच नौ चक्र की वार्ता के बाद भी बात नहीं बन पाई। जिसके बाद सुप्रीमकोर्ट ने दाखिल कई याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाते हुए नए कृषि कानून को होल्ड कर दिया है। अदालत ने सरकार की नाकामियों को लेकर जिस तरह की लताड़ लगाई सरकार को उसकी उम्मीद नहीँ रही होगी। अदालत ने साफ कर दिया है कि षि कानूनों को सरकार होल्ड करे या वह खुद ऐसा कर देगी। सुप्रीमकोर्ट ने सरकार को अब वक्त नहीँ देना चाहती थी। षि कानूनों पर सरकार के अडि़यल रुख पर अदालत ने कड़ी फटकार लगाई है। अदालत का संदेश साफ था कि सरकार षि कानूनों पर रोक नहीँ लगाती है तो कोर्ट खुद रोक लगा देगा। अदालत के इस नजरिये से मोदी सरकार के लिए मुशिकलें खड़ी हो सकती है। अभी जिस बिल को वह सियासी जय और विपक्ष की पराजय के रुप में देखती रहीं है उसका यह गुब्बार धड़ाम हो जाएगा।
अदालत आंदोलन के दौरान किसानों की आत्महत्या और मौत को लेकर भी गम्भीर है। अदालत दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सरकार और किसानों के मध्य आम सहमति का रास्ता चाहती है। इसी लिए वह षि बिल को होल्ड रखने के लिए सरकार से कह रहीं थी। जबकि सरकार के लिए यह करना मुमकिन नहीं था जिसकी वजह से अदालत को ही कानून पर रोक लगानी पड़ी। अदालत का कहना था कि जब तक समिति काम करेगी तब तक बिल को निलम्बित रखा जाए। जबकि सरकार किसानों की कुछ मांगों को छोड़ कर बिल को यथावत रखना चाहती है। सरकार किसान आंदोलन को नजरंदाज कर विपक्ष को यह संदेश देना चाहती है कि वह जो चाहेगी वहीँ करेगी। लेकिन सरकार की मुश्किल बढ़ती लगती है। किसान आंदोलन को लेकर मीडिया की भूमिका बेहद आलोचनात्मक रहीं है। दिल्ली की गाजियाबाद सीमा में जिस तरह किसान डटे हैं उस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। वहाँ उपलब्ध सुविधाओं पर भी तल्ख टिप्पणी हो रहीं है। कहा जा रह है कि यह किसान नहीँ हैं नए कानून से मण्डियां ख़त्म होने आढ़ती आंदोलन कर रहे हैं। किसान इतना कहाँ से संवृद्ध हो गया। टेंटसिटी बसाने के लिए फंडिंग कौन कर रहा है। वाशिंग मशीन, ठंड के कपड़े, कॉफी, पिज्जा और बर्गर समेत अत्याधुनिक ओडी कारें जैसी सुविधाएँ कहाँ से आ रहीं हैं। इसका क्या मतलब लोग किसान को गरीब ही बनाएं रखना चाहते हैं। किसान क्या संवृद्ध नहीँ हो सकता। अगर उसे यह सुविधाएँ मुहैया कराई जा रहीं हैं तो क्या गुनाह है। आंदोलन को वामपंथ, काँग्रेस और आढ़तियों के साथ जोड़ कर प्रचारित किया जा रहा है। सुप्रीमकोर्ट इस गतिरोध को दूर करना चाहता है। सरकार कमेटी गठित कर सरकार और किसान संगठनों से बातचीत के आधार पर रिपोर्ट तैयार करना चाहता है। उसके बाद उसी आधार पर बिल की समीक्षा करना चाहता है। अदालत अब तक सरकार की तरफ से उठाए गए कदम से संतुष्ट नहीँ है। उसने साफ कहाँ है कि वह न कानून को ख़त्म करना चाहती है और न प्रदर्शन को बंद करना चाहती है। महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को आंदोलन स्थल से कड़ाके की ठंड देखते हुए हटाना चाहती है। सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने साफ कहा था कि हम सुनवाई बंद कर रहे हैं अब आदेश पारित होगा।आखिरकार अदालत ने कानून रोक लगा दिया। सरकार पर सख्त रुख दिखाते हुए कोर्ट ने कहा है कि सरकार इतने संवेदशील मुद्दे को गम्भीरता से नहीँ सम्भाला पाई। अदालत की तल्खी देखते हुए किसान संगठनों के वकील दुष्यंत दवे ने साफ कर दिया है कि किसान 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च नहीं करेंगे। सीजेआई ने समय माँगने पर अटर्नी जनरल को भी खरी- खरी सुनाई। अदालत की तरफ से सुनाए गए फैसले के बाद सवाल उठता है कि क्या किसान सरकार और अदालत की बातें मान जाएंगे। जबकि किसानों ने कहा है कि बैठक में प्रधानमंत्री को भी आना चाहिए लेकिन अदालत ने साफ कर दिया है कि हम प्रधानमंत्री को बैठक में आने के लिए नहीं कर सकते हैं।ऐसे हालात में बात कैसे बनेगी। किसानों ने कहा है कि हम चार सदस्यीय कमेटी के सामने पेश नहीं होंगे। उस पर अदालत ने कहा कि जब आप सरकार और संगठनों के बीच हुई मीटिंग में शामिल हो सकते हैं तो कमेटी के सामने क्यों नहीं पेश हो सकते। सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित तौर पर उचित सवाल उठाया है।किसानों को मीटिंग में शामिल होना ही पड़ेगा। सवाल उठता है कि किसान और सरकार मामले को हल करना चाहते हैं या केवल इस पर सियासत करना चाहते हैं।सुप्रीमकोर्ट की तरफ से गठित चार सदस्यीय समिति सभी पक्षों को सुनने के बाद अपनी रिपोर्ट कोर्ट को देगी। अदालत ने पूरी पारदर्शिता अपनाते हुए ना तो सरकार का न तो किसान संगठनों की तरफ से किसी प्रतिनिधि को समिति में रखा है। जिन सदस्यों को रखा गया है वह अपने अपने क्षेत्र के विषय विशेषज्ञ है। इसलिए अदालत की निष्पक्षता और पवित्रता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं। षि कानूनों पर राजनीति करनी है तो यह बात यह बात दीगर है। एक लोकतांत्रिक सरकार को हमेशा से विपक्ष के प्रस्ताव पर भी विचार करना चाहिए। सरकार इस बिल को वापस नहीं लेना चाहती है हालांकि अब मामला कोर्ट के पाले में चला गया है। अब देखना है कि कोर्ट इस पर क्या फैसला देता है। अदालत समिति की रिपोर्ट आने के बाद ही इस पर वह फैसला सुनाएगी। अब वक्त आ गया है जब कृषि कानूनों पर राजनीति बंद होनी चाहिए। खुले मन से सरकार और किसान संगठनों को अदालत के निर्णय का सम्मान करना चाहिए। सरकार को भी लोकतंत्र में विपक्ष नामक संस्था का सम्मान करना चाहिए। हालांकि आजकल विपक्ष की भूमिका भी पूरी तरह राजनीतिक हो गई है। सरकार विरोध सिर्फ उसने एजेंडा बना लिया है।अदालत ने साफ कर दिया है कि आप अड़चनें पैदा करना चाहते हैं या या षि कानूनों में सुधार चाहते हैं।निश्चित रूप से अदालत की यह पहल एक गंभीर विषय है। सरकार और किसान संगठनों को मिलकर यह गतिरोध दूर करना चाहिए।

वैक्सीन में विश्वास एवं जागरूकता से लौटेंगे खुशी के दिन – डा, भरत मिश्र प्राची

भारत में कोरोना से बचाव हेतु वैक्सीन लगाने की प्रक्रिया शुरू होने से देशभर में खुशी की लहर देखी जा सकती है। को वैक्सीन आने का इंतजार देशवासियों को कई दिन से हो रहा था। 16 जनवरी 2021 का दिन इस दिशा में सदैव यादगार बन जायेगा जिस दिन से इस मानव विध्वंशकारी महामारी से लड़ने की ताकत वैक्सीन के रूप में देशवासियों को मिली है। जहां इस वैक्सीन की तैयारी में विश्व के अनेक देश क्रियाशील रहे, इस दिशा में हमारा देश भारत भी किसी से पीछे नहीं रहा। जहां देश के वैज्ञानिकों ने अथक प्रयास कर कोरोना से लड़ने की वैक्सीन तैयार कर ली जिसे प्रथम चरण के प्रथम दिन में देश के करीब 3 लाख स्वास्थ्य कर्मियों को यह वैक्सीन लगाई गई। इस वैक्सीन को लगाने में हर तरह की सतर्कता भी सरकार की ओर से बरती जा रही है। इस वैक्सीन के आने से पूर्व कई तरह की भ्रांतियां भी आमजन के बीच फैलाई गई जिसे स्वास्थ्य कर्मियों में लगाने की शुरूआत कर आमजन के बीच इस वैक्सीन से होने वाले नुकसान के डर से भयमुक्त होने में आत्मबल मिलेगा। जब से कोरोना काल देश में आया है तब से देश का हर नागरिक इस महामारी से बचाव का रास्ता ढ़ूढ़ता रहा है। इस महामारी ने देशभर में ऐसा मृत्यु तांडव किया जिससे देश का हर नागरिक भयभीत हो चला। इस महामारी ने हमारे रिश्ते को बुरी तरह से प्रभावित किया जहां प्रेम से मिलने का संसार हीं मौन हो गया। एक दूसरे से आपस में मेलजुल का भाव हीं ठप्प हो गया। सांस्तिक, घार्मिक हर तरह के कार्यक्रम ठप्प हो गये। रोजगार बंद होने से आमजनजीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। दैनिक दिनचर्या बिगड़ गई। खुली सांस लेना मुश्किल हो गया। एक दूसरे का दिया सामान भी छूने से डर लगने लगा। इस तरह की महामारी आज तक नहीं आई जिसने जीवनक्रम हीं बदल दिया हो। वैसे यह महामारी विश्वभर में फैली हुई है और इससे बचाव के रास्ते विश्वस्तर पर जारी है। विदेश में इससे बचाव के टीके बनने की भी और बाजार में आने की चर्चा जोरशोर से है। इस वैक्सीन को लेकर गोरखधंधा होने की भी खबर है जिससे बचना बहुत जरूरी है। इस तरह के बदलते परिवेश में हमारा देश कोरोना से बचाव के रास्ते में आत्मनिर्भर होता नजर आ रहा है। यह इस देश के लिये गौरव की बात है। इस तरह के महौल में आज जरूरत है कि सभी एक साथ होकर कोरोना को हराने का प्रयास करें। इस वैक्सीन को लेकर देश में गोरखधंधा शुरू होने की संभावना है। लोगों को भ्रमित करने का भी क्रम चल सकता है। इस तरह के उभरते परिवेश से देशवासियों को अलग कर ही कोरोना की जंग जीती जा सकती है। इस वैक्सीन के आने से देश भर में जो जीने एवं संग – संग चलने की उम्मीद जगी है, उसकी सफलता विश्वास एवं जागरूकता पर निर्भर है।

भारत-नेपालः सार्थक संवाद-डॉ़. वेदप्रताप वैदिक-

नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली की यह दिल्ली-यात्रा हुई तो इसलिए है कि दोनों राष्ट्रों के संयुक्त आयोग की सालाना बैठक होनी थी लेकिन यह यात्रा बहुत सामयिक और सार्थक रही है। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने परस्पर सड़कें बनाने, रेल लाइन डालने, व्यापार बढ़ाने, कुछ नए निर्माण-कार्य करने आदि मसलों पर सहमति दी लेकिन इन निरापद मामलों के अलावा जो सबसे पेंचदार मामला दोनों देशों के बीच आजकल चल रहा है, उस पर भी दोनों विदेश मंत्रियों ने बात की है। नवंबर 2020 में शुरू हुए सीमांत-क्षेत्र के लिपुलेख-कालापानी-लिंपियाधुरा के सीमा-विवाद के कारण दोनों देशों के बीच काफी कहासुनी हो गई थी। भारतीय विदेश मंत्रालय इस मामले को इस वार्ता के दौरान शायद ज्यादा तूल देना नहीं चाहता था। इसीलिए उसने अपनी विज्ञप्ति में इसपर हुई चर्चा का कोई संकेत नहीं दिया लेकिन नेपाली विदेश मंत्रालय ने उस चर्चा का साफ-साफ जिक्र किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि नेपाल की आंतरिक राजनीति का यह बड़ा मुद्दा बन गया है। नेपाल की ओली-सरकार द्वारा संसद में रखे गए नेपाल के नए नक्शे पर सर्वसम्मति से मुहर लगाई गई है। भारत के पड़ौसी देशों की राजनीति की यह मजबूरी है कि उनके नेता अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए प्रायः भारत-विरोधी तेवर अख्तियार कर लेते हैं। अब क्योंकि सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दो टुकड़े हो गए है, संसद भंग कर दी गई है और ओली सरकार इस समय संकटग्रस्त है, इसलिए भारत से भी सहज संबंध दिखाई पड़ें, यह जरूरी है। इस काम को नेपाली विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली ने काफी दक्षतापूर्ण ढंग से संपन्न किया है। इस बीच यों भी भारत के सेनापति और विदेश सचिव की काठमांडो-यात्रा ने आपसी तनाव को थोड़ा कम किया है। इंडियन कौंसिल अफ वर्ल्ड एफेयर्स में ग्यावली ने कई पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए इतनी सावधानी बरती कि भारत-विरोधी एक शब्द भी उनके मुंह से नहीं निकला। कुछ टेढ़े सवालों का जवाब देते समय यदि वे चूक जाते तो उन्हें नेपाल में चीनी दखलंदाजी को स्वीकार करना पड़ता लेकिन उन्होंने कूटनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए विशेषज्ञों और पत्रकारों पर यही प्रभाव छोड़ा कि भारत-नेपाल सीमा-विवाद शांतिपूर्वक हल कर लिया जाएगा। उन्होंने 1950 की भारत-नेपाल संधि के नवीकरण की भी चर्चा की। उन्होंने भारत-नेपाल संबंध बराबरी के आधार पर संचालित करने पर जोर दिया और कोरोना-टीके देने के लिए भारत का आभार माना। भारत-नेपाल संबंधों की भावी दिशा क्या होगी, यह जानने के पहले नेपाली राजनीति की आंतरिक पहेली के हल होने का इंतजार हमें करना होगा। तात्कालिक भारत-नेपाल संवाद तो सार्थक ही रहा है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।‎)

अपराध खत्म नहीं हो सकते हैं,पर इंसाफ तो पूरा होना चाहिए-अजय कुमार-

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में अधेड़ महिला के साथ हैवानियत के बाद हत्या की वारदात से एक बार फिर मानवता शर्मसार हो गई। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि इस अधेड़ महिला के साथ वहां हैवानियत हुई जहां वह अपने बीमार पति के स्वास्थ और लम्बे जीवन की कामना करने के लिए गई थी। किसी धार्मिक स्थल या उसके परिसर में इस तरह की वारदात का होना यही बताता है कि हैवानों को भगवान से भी डर नहीं लगता है।इतना ही नहीं इस कांड में मंदिर का केयरटेकर भी शामिल था। बदायूं का त्य भी हाथरस कांड जैसी तमाम घटनाओं से कम नहीं था। बस फर्क था तो समय और स्थान का। हाथरस की तरह यहां भी पुलिस और प्रशासन ने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाहन करने में जरा भी रूचि नहीं दिखाई। वैसे उक्त दो मामले अपवाद नहीं है। सच्चाई यही है कि बात अपराध की हो या फिर जनता से जुड़ी समस्याओं अथवा विकास कार्यों की सरकारी अमला हमेशा लापरवाह ही नजर आता है। नौकरशाहों और बड़े जिम्मेदार अधिकारियों के माथे पर तब तक शिकन नहीं आती है,जब तक की पानी सिर से ऊपर नहीं चला जाता है। मुरादनगर शमशान घाट पर छत गिरने से करीब दो दर्जन मौतों के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिला था। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि करीब-करीब पूरा सरकारी अमला अपनी मनमर्जी से काम करता है। आम जनता शिकायत करती है तो उन शिकायतों की सुनवाई भी यही लोग करते हैं और मामले को रफादफा होने में समय नहीं लगता है। सरकारी मशीनरी कैसे काम करती है, इसका पता तो वह ही बता सकता है जो भुक्तभोगी होता है। कहीं पुलिस पीडि़त की सुनवाई नहीं करती है तो कहीं- कहीं तो वह दबंगों के साथ ही खड़ी हो जाती है। पुलिस का जनता से सीधा सरोकार रहता है, इसलिए उसकी खामियां तो जगजाहिर हो जाती है,वर्ना करीब-करीब सभी सरकारी विभागों में एक जैसे हालात हैं। अर्दली से लेकर ऊपर तक बैठे अधिकारी मनमानी करते रहते हैं। इसका कारण है किसी अधिकारी/कर्मचारी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं तय है। न ही सजा का कोई खास प्रावधान है जिससे सरकारी नुमाइंदों में भय पैदा हो। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तमाम कोशिशों के बाद भी सरकारी अधिकारी/कर्मचारी अपना रवैया नहीं बदल रहे हैं तो इसे सिस्टम की चूक कहा जाएगा। पता नहीं ऐसी कौन सी मजबूरी थी जो बदांयू कांड के लिए जिम्मेदार एसओ को निलंबित भर करके छोड़ दिया गया। वह क्यों नहीं जेल में है। सबसे पहले तो उसी की गिरफ्तारी होनी चाहिए थी ।बहरहाल, हमेशा की तरह बदायूं कांड को लेकर भी विपक्ष योगी सरकार पर हमलावर हो गया है। विपक्ष जो सत्ता पक्ष को घेरने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता है। इसमें भले किसी को सियासत नजर आए लेकिन इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि विपक्ष की सक्रियता के चलते ही कई आपराधिक मामले उजागर हो जाते हैं। वर्ना सरकारी अमला तो ऐसे मामलों को दबाए रखने में महारथ रखता है। बस विपक्ष के विरोध का तरीका नहीं समझ में आता है। ऐसा तो है नहीं कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार से पहले अपराध नहीं हुआ करते थे। पहले भी हुआ करते थे, आगे भी होते रहेंगे? यह कड़वी हकीकत है। चाहें कोई कुछ कहे हर जगह पुलिस नजरें जमाए नहीं रह सकती है,लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जब किसी आपराधिक घटना के होने या होने की संभावनाओं की जानकारी शासन-प्रशासन और पुलिस को लगे तो तब भी वह आंख मूंदे बैठा रहे या घटना स्थल पर जाने से बचता रहे। बस, होना यह चाहिए कि पीडि़त को जल्द से जल्द न्याय मिल जाए और अपराधी चाहें जितना रसूख वाला क्यों न हो उसे कोई बचाने की हिमाकत नहीं कर पाए। यह जिम्मेदारी सरकार की होती है कि जब शासन-प्रशासन और पुलिस अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करने में सफल नहीं होते दिखे तो वह न्यायसंगत कदम उठाते हुए दूध का दूध,पानी का पानी कर दे। विपक्ष को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी। उसे हर समय अपनी सियासत चमकाने की बजाए समाज के प्रति भी सजग रहना चाहिए। हमेशा सरकार को घेरने से बचते हुए किसी अपराध के पीछे कौन जिम्मेदार है ? इस पर ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए। घटना के बाद जिस प्रकार से पुलिस की लापरवाही सामने आई है, उससे सरकार की किरकिरी हो रही है। सपा-बसपा और कांग्रेस समेत कई दलों ने योगी सरकार को निशाने पर ले लिया है,परंतु सभी दलों का आलाकमान योगी को निशाने बनाने तक ही सीमित होकर रह गया है। समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार के दौरान कानून व्यवस्था का क्या हाल था,यह किसी से छिपा नहीं है,लेकिन आज अखिलेश कह रहे हैं कि बीजेपी सरकार का कुशासन अपराधियों की ढाल न बने। भाजपा सरकार अपराधियों को बचाने की कोशिश न करे और मृतका व उसके परिवार को पूर्ण न्याय मिले। अखिलेश को लम्बी चौड़ी बातें करने की बजाए यह बताना चाहिए कि बदायूं कांड में योगी सरकार ने क्या चूक करी। चाहें तो वह यह भी बता सकते हैं कि उनकी सरकार के समय ऐसी घटनाओं के सामने आने के बाद उन्होंने किस तरह के कदम उठाए थे।कितनों को तुरंत जेल भेज दिया था और कितनों को निलंबित किया था। मगर ऐसी मिसाल अखिलेश सरकार ने अपने शासनकाल में स्थापित ही नहीं की थी, इसी लिए अखिलेश इधर-उधर की बात कर रहे हैं। बदायूं कांड को लेकर प्रतिक्रिया व्यक्त करने में बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने अखिलेश से अधिक गंभीरता दिखाई। माया ने घटना पर दुख व्यक्त करते हुए ट्वीट किया कि उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में महिला के साथ हुई सामूहिक दुष्कर्म और हत्या की घटना अति-दुखद व अति-निंदनीय है। बीएसपी की मांग है कि राज्य सरकार इस घटना को गंभीरता से ले और दोषियों को सख्त सजा दिलाना भी सुनिश्चित करे। ताकि ऐसी घटना की पुनरावृति न हो। कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार जो देश की आन-बान और शान जैसे हर मुद्दे पर सियासत करता रहता है,उसने बदायूं कांड पर भी जनता को उकसाने की भरपूर कोशिश की। कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव व यूपी प्रभारी प्रियंका वाड्रा ने योगी सरकार पर निशाना साधा और आरोप लगाया कि महिला सुरक्षा पर सरकार की नीयत में खोट है। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि हाथरस में सरकारी अमले ने शुरुआत में फरियादी की नहीं सुनी, सरकार ने अफसरों को बचाया और आवाज को दबाया। बदायूं में थानेदार ने फरियादी की नहीं सुनी, घटनास्थल का मुआयना तक नहीं किया। महिला सुरक्षा पर यूपी सरकार की नीयत में खोट है। प्रियंका ने जो कहा सही कहा,लेकिन ऐसी बेबाक बयानबाजी वह तब नहीं कर पाती हैं जब कांग्रेस शासित राज्यों में इस तरह की कोई आपराधिक घटना होती है। इन दलों के नेताओं को समझना होगा कि किसी महिला की ‘इज्जत’ और हत्या के मामले में दोहरा रवैया न अपनाए। अन्यथा इन नेताओं की बात को कोई गंभीरता से नहीं सुनेगा और इनकी विश्वसनीयता का ग्राफ गिरता ही रहेगा।कुल मिलाकर समाज से अपराध तो खत्म नहीं हो सकते हैं लेकिन इसके लिए जिम्मेदारों को कड़ी सजा और भुक्तभोगी को इंसाफ तो मिलना ही चाहिए।

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