विजय संघवी
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस गहरी मुश्किलों में उलझी है। इससे इसके अस्तित्व के लिए भी संकट पैदा हो गया है। हालांकि गहरी राजनीतिक समझबूझ रखने वाले पार्टी के कुछ लोग जानते हैं कि पार्टी के समक्ष यह गंभीर संकट नेतृत्व के अभाव की वजह से नहीं, बल्कि इस समझ की कमी की वजह से है कि कोई भी पार्टी एक दृढ़ व स्पष्ट विचारधारा के बगैर टिकी नहीं रह सकती और ना ही आगे बढ़ सकती है। लेकिन कांग्रेस बीते तकरीबन चार दशक से इसी भरोसे पर चल रही है कि गांधी परिवार ही सियासी मंच पर इसके आगे बढ़ने की राह सुनिश्चित कर सकता है। अभी भी पार्टी में निराशा का माहौल इसलिए है क्योंकि राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं। लेकिन ज्यादा निराशा उनकी इस घोषणा की वजह से है कि नया अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति ही होना चाहिए। इसके पीछे राहुल गांधी की कोशिश इस धारणा को मिटाने की है कि कांग्रेस पार्टी एक परिवार की निजी जागीर से ज्यादा कुछ नहीं है और यदि गांधी परिवार पार्टी से अलग हो जाए तो यह जीवित नहीं रह सकती। यूं देखा जाए तो कांग्रेस पार्टी की मौजूदा मुश्किलों की जड़ें प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा वर्ष 1963 में स्वीकार की गई उस कामराज योजना में निहित हैं, जिसके तहत तब उच्च पदों पर बैठे ताकतवर नेताओं से इसलिए छुटकारा पा लिया गया था, ताकि वे नेहरू के लिए चुनौती न बनें। शुरुआती तीन चुनावों में देश की जनता नेहरू को इसीलिए पूजती रही, क्योंकि उन्होंने आमजन से नए भारत के निर्माण का वादा किया था। लेकिन जब उन्होंने अपने संभावित प्रतिद्वंद्वियों को हटाने के लिए कामराज योजना को स्वीकार किया, तो लोगों की उनके प्रति धारणा बदल गई। उन्होंने खुद तो चैथे चुनाव का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन उनकी पुत्री इंदिरा गांधी जरूर बतौर प्रधानमंत्री जनता की अदालत में पहुंचीं। तब मतदाताओं ने कांग्रेस को पांच राज्यों में सत्ता से वंचित करते हुए पहली चोट पहुंचाई और लोकसभा में भी उसका मार्जिन घट गया। इंदिरा गांधी ने पार्टी और सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने और दक्षिणपंथियों के समूह को परिदृश्य से हटाने के लिए वाममार्गी नीतियों को अख्तियार किया। ऐसा उन्होंने अपने विश्वास की वजह से नहीं, बल्कि विशुद्ध राजनीतिक जरूरत के चलते किया। इस तरह उन्होंने जबर्दस्त जनादेश हासिल किया और दक्षिणपंथी गुट को हराने में कामयाब रहीं, जिसने 1971 के चुनाव में उनका विरोध किया था। उन्होंने लोगों में उम्मीदें तो जगाईं, लेकिन उनमें जनता से किए गए वादों को पूरा करने की मंशा या समझ नजर नहीं आई। कांग्रेस का दुर्भाग्य रहा कि इंदिरा ने पूरी तरह इसे अपने ऊपर निर्भर बना लिया। इंदिरा को लगता था कि पार्टी मैकेनिज्म को मैनेज करने में कोई मुश्किल नहीं है क्योंकि वह सीधे जनता तक पहुंच रखती हैं। उन्होेंने पार्टी के अंदरूनी लोकतांत्रिक ढांचे को ध्वस्त कर दिया, जिससे यह पूरी तरह उनकी पसंद और नापसंद पर निर्भर होकर रह गई। पार्टी द्वारा केंद्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्रियों और यहां तक कि जिला समितियों के पदाधिकारियों की नियुक्ति भी मनोनीत ढंग से होने लगी। इससे जाहिर तौर पर कमजोर राजनेताओं को प्रश्रय मिला क्योंकि इंदिरा किसी भी पद पर मजबूत नेता को नहीं चाहती थीं, जो उन्हें किसी तरह की चुनौती दे सके। देश की हताश-निराश जनता न तो मई 1974 में हुए परमाणु परीक्षण से प्रभावित थी और न ही वर्ष 1975 में उनके द्वारा मनमाने ढंग से देश पर आपातकाल थोपने के फैसले से आतंकित हुई। यही वजह है कि 1977 में हुए चुनावों में कांग्रेस की जबर्दस्त हार हुई और कई राज्यों में उसका सूपड़ा साफ हो गया। जनवरी 1980 में इंदिरा की सत्ता में नाटकीय वापसी इस वजह से हुई, क्योंकि उनके विरोधी एक बेहतर साझा विकल्प पेश करने में नाकाम रहे। आगे चलकर राजीव गांधी ने भी कांग्रेस में वास्तविक रूप से ताकतवर लोगों को उभरने न देने की अपनी मां द्वारा स्थापित परंपरा को जारी रखा, ताकि पार्टी और सरकार दोनों की कमान उनके ही हाथ में रहे। उन्होंने पार्टी की विचारधारा को कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचाया, जिसके लिए यह जानी जाती थी। पार्टी न तो वाममार्गी रहीं, न दक्षिणमागी और न मध्यमार्गी। उनके शासन के दौरान अमीरों को फायदा मिला। नरसिंह राव सरकार ऐसी पहली कांग्रेस सरकार थी, जिसके साथ गांधी परिवार का सीधा जुड़ाव नहीं था। अलबत्ता अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की वजह से गांधी परिवार का साया जरूर हमेशा इसके पीछे लगा रहा। यह अर्जुन सिंह ही थे, जो एक हमले में राजीव गांधी के मारे जाने के बाद 12 घंटे के भीतर ही पार्टी अध्यक्ष का ताज एक तरह से तश्तरी में सजाकर सोनिया गांधी के पास पहुंच गए थे। हालांकि उस वक्त पति की मौत के गम में डूबी सोनिया ने उस पेशकश को ठुकरा दिया, लेकिन वे ज्यादा समय राजनीति से दूर नहीं रहीं। वर्ष 1998 में उन्हें चुनाव प्रचार अभियान में भागीदारी करते हुए सक्रिय राजनीति में कदम रखा और जल्द ही पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली। वर्ष 2004 के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस ने स्वेच्छा से राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर अपने स्तर को घटाया और इस तरह वह गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने की स्थिति में आई। उस वक्त सोनिया खुद प्रधानमंत्री नहीं बनीं, बल्कि मनमोहन सिंह को इस कुर्सी पर बिठाया। यह एक सोचा-समझा कदम था, चूंकि मनमोहन के अपने कोई समर्थक नहीं थे और मानसिक रूप से वे राजनीतिक आदेशों को लेने के लिए तैयार भी थे।सोनिया गांधी बीस साल तक पार्टी अध्यक्ष रहीं, लेकिन इस दौरान उन्होंने सलाहकार मंडली में कोई बदलाव नहीं किया। जनता के साथ सीधे या पार्टी तंत्र के जरिए पुनरू जुड़ाव कायम करने के कोई प्रयास नहीं किए गए। जनता के मानस को जानने-समझने के लिए स्वतंत्र व निष्पक्ष विमर्श का कोई मंच नहीं खोला गया। तीन दशक पहले जब निजी भागीदारी के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोले गए थे, तब से अब तक भारतीय शहरी व ग्रामीण समाज में तेजी से बदलाव आया है। साक्षरता दर दोगुनी हो चुकी है। यहां तक कि गरीब परिवार भी अब केंद्रीय परिवार के मानकों को अपनाने लगे हैं, जिससे पता चलता है कि लोगों की मानसिकता कितनी बदल चुकी है। लेकिन पार्टी नेतृत्व इस व्यापक बदलाव के प्रति बेसुध रहा। उसे यही लगता रहा कि कर्ज माफी और सस्ते या मुफ्त राशन जैसी चैरिटी योजनाओं या वादों के लिए जनता को भरमाया जा सकता है। मां-बेटे की जोड़ी उसी तरह खेल में हारी, जैसे यूरोप में 18वीं सदी में साम्राज्यवादी ताकतों का पतन हुआ था। पार्टी को संजीवनी तभी मिलेगी, जब वह ऐसा कोई फॉर्मूला तैयार करे, जिससे जनता इसके साथ दोबारा जुड़ने को प्रेरित हो। पार्टी को जल्द सक्षम नेतृत्व भी तलाशना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)