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शहादत मेजर शैतान सिंह: तीन महीने बाद मिला था शव

मरणोपरांत परमवीर चक्र प्रदान किया गया
मेजर शैतान सिंह का शौर्य पराक्रम चीन के ख़िलाफ़ लड़ते हुए रेजांग ला मोर्चे पर अंतिम बार आज के दिन 18 नवम्बर 1962 को नज़र आया था। वह चुशूर सक्टर में 17 हजार फीट की ऊचाँई पर चीन की गोला बारूद से लैस भारी सेना का सामना कर रहे थे। उस मोर्चे पर उन्होंने अदम्य साहस, कुशल नेतृत्व क्षमता तथा देश के प्रति गहरी समर्पण भावना का उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसके लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र प्रदान किया गया।
जून 1962 में चीन-भारत युद्ध के दौरान 13 कुमायूं बटालियन चुशूल सेक्टर में तैनात थी। उस ब्रिगेड की कमान ब्रिगेडियर टी.एन. रैना संभाल रहे थे। अम्बाला से जब यह ब्रिगेड जम्मू कश्मीर पहुँची तो उन्होंने एक दम पहली बार बर्फ देखी। इसके पहले उन्होंने कभी पर्वतीय सीमा का अनुभव नहीं लिया था। अब उन्हें दुनिया के सबसे ज्यादा शीत प्रताड़ित क्षेत्र में लड़ना था। उनके सामने चीन की सेना सिनकियांग से थी, जो ऐसे युद्ध क्षेत्र में लड़ने की अभ्यस्त थी। चीन की सेना के पास सभी आधुनिक शास्त्र तथा भरपूर गोला-बारूद था, जबकि भरतीय सैनिकों के पास एक बार में एक गोली की मार करने वाली राइफलें थीं, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद बेकार घोषित कर दी गई थीं। मौसम की मार और हथियारों की इस स्थिति के बावजूद 13 कुमाँयू की ‘सी कम्पनी के मेजर शैतान सिंह इस मनोबल से भरपूर थे कि उनके रेजांग ला के मोर्चे पर अगर दुश्मन हमला करता है तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी होगी। दुश्मन की ओर से सब तरफ आटोमेटिक बन्दूकों की तथा मोर्टार की घेरा बन्दी बनी हुई थी। चीनी फौजों ने अचानक हमला किया और सचमुच उसे भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। युद्ध भूमि दुश्मन के सैनिकों की लाशों से भर गई। उनके गुपचुप हमले का कुमायूंनी सतर्कता के कारण भारत को चल गया था। जब चीनी दुश्मन का अचानक हमला नाकाम हो गया तो उसने रेजांग ला पर मोर्टार तथा रॉकेटों से बंकरों पर गोलीबारी शुरू कर दी। ऐसे में किसी भी बंकर के बचे रहे जाने की सम्भावना नहीं थी फिर भी मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी ने वहाँ से पीछे हटने का नाम नहीं लिया।
जब सामने से मोर्टार का हमला आगे की सैन्य पंक्ति को साफ कर गया, तब चीनी फौजों ने ध्यान प्लाटून के बीच में केन्द्रित किया। मेजर शैतान सिंह पूरी तरह से घिर गए थे और उन्हें इस बात का पूरा एहसास था। उन्होंने हिम्मत न हारते हुए एक बार अपनी टुकड़ी को संगठित करके उनके ठिकानों पर तैनात किया और उन्हें अपनी नेतृत्व क्षमता से हौसला दिया कि वह आखिरी पल तक जूझ जाएँ। इस दौरान उनकी एक बाँह में गोली लगी और फिर मशीनगन ने उनके पैर एक वार किया। इस वार ने उन्हें धराशायी कर दिया। उनके पास गिनती के जवान थे। उन्होंने कोशिश तो की कि वह अब मेजर शैतान सिंह को उठा कर किसी सुरक्षित ठिकाने पर पहुँचा दे, लेकिन उनके पास इतना अवसर नहीं था। ऐसे में मेजर ने उन्हें आदेश किया कि उनके सैनिक दुश्मन से जूझते रहें और उन्हें वहीं छोड़ दें। मेजर शैतान सिंह के हताहत होने ने उनकी जीवित बची सेना को उत्तेजना से भर दिया लेकिन दुश्मन प्रबल था और अंतत: एक-एक करके मेजर शैतान सिंह के सारे जवान रणभूमि में बलिदान हो गए। उस बर्फ से ढ़के रण क्षेत्र में मेजर शैतान सिंह का मृत शरीर तीन महीने बाद पाया गया।
शैतान सिंह का पूरा नाम शैतान सिंह भाटी था। इनका जन्म 1 दिसम्बर 1924 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ था। उनके पिता श्री हेमसिंह जी भाटी भी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल रहे थे। शैतान सिंह ने 1 अगस्त 1949 को कुमायूं में कदम रखा था। चीन का वह युद्ध जिसमें मेजर शैतान सिंह ने अपना पराक्रम दिखाया, 1962 में आक्साई चिन सीमा विवाद से शुरू हुआ था। चुशूल सेक्टर सीमा से बस पन्द्रह मील दूर था और वह क्षेत्र लद्दाख की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। चीन का युद्ध भारत के लिए बहुत से सन्दर्भो में एक नया पाठ था। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू विश्व शान्ति के पक्षधर थे और उनकी नजर विकास कार्यों पर अधिक थी। आवास, उद्योग आदि क्षेत्रों पर देश की योजनाएँ केन्द्रित थी। चीन की विस्तारवादी नीति और कार्यवाही भले ही भारत से छिपी नहीं थी, फिर भी हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि चीन हमारे लिए एक हमलावर देश सिद्ध होगा। भले ही चीन ने जिस तरह से तिब्बत पर अपना कब्जा जमाया हुआ था और दलाई लामा को भारत ने शरण दी थी, यह एक साफ कारण बनता था।

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