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तीन तलाक पर सुनवाई
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक वाले मसले पर सुनवाई शुरू कर दी। 1985 में शाह बानो मामले में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद के जरिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटवाया, तभी से किसी न किसी रूप में यह बहस और विवाद में बना रहा है। 2016 में शायरा बानो वाले केस के बाद यह मसला एक बार तीखे रूप में सामने आ गया। अंतर यह है कि इस बार मुस्लिम महिलाएं खुलकर सामने आईं। मुस्लिम समाज का परंपरावादी तबका आज भी यही कह रहा है कि तीन तलाक शरीयत से जुड़ा मसला है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता। उसके मुताबिक ऐसा करना संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन होगा।
मगर बड़ी संख्या में सामने आई मुस्लिम महिलाओं का कहना है कि एक ही बार में तीन तलाक बोलकर या लिखकर तलाक दे देने की परिपाटी कानून के सामने समानता के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। साफ है कि तीन तलाक वाले मसले की ये अलग-अलग व्याख्याएं संविधान द्वारा घोषित नागरिकों के मूल अधिकारों से जुड़ गई हैं। इसलिए इस मामले में किस व्याख्या को संवैधानिक माना जाए, इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ही कर सकती है। संविधान पीठ ने अपनी इस जिम्मेदारी के निर्वाह की प्रक्रिया शुरू कर दी है। पीठ की गंभीरता का अंदाजा इस बात से हो सकता है कि वह अपनी नजरें मूल प्रश्न से एक इंच भी इधर-उधर नहीं होने दे रही।
मौजूदा बहस की आड़ में बहुविवाह को भी इस मसले से जोड़ा जाने लगा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की इस पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पहले ही दिन साफ कर दिया कि वह बहुविवाह जैसे किसी भी अन्य मसले पर विचार नहीं करेगी और उसकी सुनवाई तीन तलाक तक ही सीमित रहेगी। दिलचस्प यह भी है कि इस संविधान पीठ के पांचो सदस्य- चीफ जस्टिस जे एस खेहर (सिख), जस्टिस कुरियन जोसफ (ईसाई), जस्टिस आर एफ नरीमन (पारसी), जस्टिस यूयू ललित (हिंदू) और जस्टिस अब्दुल नजीर (मुस्लिम) – अलग-अलग धर्मों से आते हैं। उम्मीद की जाए कि भारतीय समाज की यह खूबसूरती इस अहम मसले पर आने वाले फैसले को सर्वग्राह्य बनाएगी।
कूटनीति की परीक्षा
कुलभूषण जाधव का मामला भारतीय डिप्लोमेसी के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। यह भारत-पाक संबंध ही नहीं पूरे एशिया के शक्ति संतुलन पर असर डाल सकता है। भारतीय नौसेना के रिटायर्ड अधिकारी कुलभूषण जाधव को जासूसी करने के आरोप में पिछले महीने पाकिस्तानी सैन्य अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी। जिस तरह इस मामले में फैसला हुआ, उस पर भारत ने आपत्ति जताई और फैसले के खिलाफ इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में अपील की। हमारी अपील पर अंतरराष्ट्रीय अदालत ने पाकिस्तान के पीएम नवाज शरीफ को पत्र लिखकर जाधव की फांसी पर रोक लगाने के लिए कहा।
भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाने के सिवा और कोई रास्ता भी नहीं बचा था। पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया और ना ही उन्हें भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों से मिलने की इजाजत दी गई। जाधव के लिए 16 बार काउंसलर एक्सेस की मांग की गई लेकिन पाकिस्तान ने हर बार इसे नकार दिया। अब पाकिस्तान कह रहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के आदेश को मानने के लिए बाध्य नहीं है। लेकिन हकीकत यह है कि पाकिस्तान विएना संधि के तहत इस न्यायालय के आदेश को मानने के लिए बाध्य है।
बहरहाल, दिक्कत दूसरी है। अगर मान लिया जाए कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला पाकिस्तान के खिलाफ आता है, फिर भी पाकिस्तान न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करता है, तो इसको लागू कराने के लिए न्यायालय के पास कोई शक्ति नहीं है। वह फैसले को लागू कराने के लिए सिर्फ 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद से सिफारिश कर सकता है, लेकिन इसके लिए पांचों स्थायी सदस्यों और कम से कम चार अस्थायी सदस्यों की मंजूरी जरूरी है। सुरक्षा परिषद की मंजूरी के बाद पाकिस्तान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन पूरी संभावना है कि चीन सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान का बचाव करेगा। वह इस पर वीटो का भी इस्तेमाल कर सकता है।
इससे पहले भी वह जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अजहर को प्रतिबंधित सूची में शामिल कराने की भारत की कोशिशों में अड़ंगा लगाता आ रहा है। ऐसे में बेहतर यही होगा कि हम विश्व बिरादरी के सामने इस बात को उजागर करते रहें कि जाधव के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है। खुद पाकिस्तान सरकार के सलाहकार सरताज अजीज ने पाकिस्तानी सीनेट को बताया था कि जाधव के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं हैं। यह अलग बात है कि बाद में वह अपने इस बयान से पलट गए। जाधव के कथित कबूलनामे के जिस विडियो को सबसे खास सबूत बताया गया है, उसमें 29 कट हैं, जो विडियो के साथ छेड़छाड़ किए जाने की तरफ संकेत करते हैं। हमें कूटनीतिक विकल्पों को आजमाते रहना होगा।
फ्रांस में आशावादी धूमकेतु का उदय-पुष्परंजन
बीच में लगा था कि दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में राष्ट्रवादियों की जीत का सिलसिला जारी है। मगर, नीदरलैंड के बाद फ्रांस के आम चुनाव के परिणाम इस अवधारणा को खंडित करते दिख रहे हैं। राष्ट्रवादी और यूरोपीय संघ का विरोध करने वाले धड़े की हार से लगता है कि यूरोप में मतदाता राजनीति की सूरत बदलने के मूड में एक बार फिर से हैं। फ्रांस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों के पास जश्न मनाने का समय तक नहीं है। उसकी वजह 11 और 18 जून को आहूत संसदीय चुनाव है, जिसे जीतना माक्रों के लिए बेहद जरूरी है। यों, राष्ट्रपति चुनाव में इमानुएल माक्रों की जीत से यूरोप के कई नेता राहत की सांस ले रहे हैं। यूरोप में पॉपुलिज्म और दक्षिणपंथ के उभार को लेकर दहशत की स्थिति बनी हुई थी। डोनाल्ड ट्रंप जीतते अमेरिका में हैं और संरक्षणवाद को बढ़ावा देने वाले यूरोप में हवा बनाते हैं कि दक्षिणपंथ को दुनियाभर में लोग पसंद करने लगे हैं।
39 साल के इमानुएल माक्रों ने जब फ्रांस्वां ओलांद सरकार में मंत्री पद छोड़ा था और उससे पहले ‘आँ मार्शÓ का गठन किया था, तो सबने उनका मज़ाक बनाया था। सबको लगता था कि दक्षिणपंथी राजनीति का सबसे मशहूर चेहरा, मारीन ले पेन को यह युवक कहां से हरा पायेगा, जिसे राजनीति में आये जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए हैं। राष्ट्रपति ओलांद और तत्कालीन प्रधानमंत्री मैनुअल वेल्स, मंत्रिमंडल के इस कम उम्र के सदस्य को स्कूली बच्चा समझते थे। एक साल पूरे होते-होते ‘आँ मार्शÓ नामक आंदोलन का नेता फ्रांस का राष्ट्रपति चुन लिया जाए, ऐसा करिश्मा कम ही देखने को मिलता है। चुनाव की रेस में सबसे आगे नजऱ आने वाली ‘नेशनल फ्रंटÓ की नेता ले पेन ने तीस लाख प्रवासियों को उनके देश वापस भेजे जाने का नारा दिया था। ले पेन यहूदियों के नरसंहार को नकारती थीं। ये सारे राष्ट्रवादी टोटके माक्रों समर्थक 66.06 फीसदी मतदाताओं ने ध्वस्त कर दिये। मारीन ले पेन को मात्र 33.94 प्रतिशत मत मिले हैं।
नेपोलियन बोनापार्ट 1804 में जब फ्रांस के शासनाध्यक्ष बने, तब उनकी उम्र 35 साल थी। दो सदी बाद, 39 साल के इमानुएल माक्रों ‘आधुनिक फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्टÓ बनकर उभरे हैं। 27 मई 1974 को गिस्कार्द द एस्तों जब 48 साल की उम्र में फ्रांस के राष्ट्रपति बने तो उन्हें सबसे कम आयु वाला शासन प्रमुख माना गया था। गिस्कार्द द एस्तों अभी जीवित हैं और जीवन का 91वां वसंत देख रहे हैं। जीत के बाद माक्रों ने पेरिस के विश्व प्रसिद्ध लुव्रे म्यूजियम पर समर्थकों को संबोधित करते हुए फ्रांस को एक बार फिर से एक करने का वादा किया है। फ्रांस में चुनाव और उससे बहुत पहले आतंकवादी वारदातों ने देश के माहौल को विभाजित कर दिया था, यह उस देश की जमीनी सच्चाई है। लोगों को संबोधित करते हुए माक्रों ने कहा कि देश की एकता और यूरोप की सुरक्षा हमारे शासन की प्राथमिकता होगी। माक्रों ने फ्रांस को बिजनेस फ्रेंडली मुल्क बनाने और कारपोरेट टैक्स कम करने का वायदा कर रखा है।
फ्रांस में बाकी यूरोपीय देशों की तरह हर तीन माह पर रोजगार डाटा से लोगों को रूबरू कराया जाता है। हालिया प्रकाशित तिमाही से स्पष्ट हुआ है कि फ्रांस में 23.70 फीसदी युवा रोजग़ार की तलाश में हैं। माक्रों को जिस तरह से जनादेश मिला है, उसमें युवा वोटरों की संख्या अधिक बताई जा रही है। इससे स्पष्ट है कि नयी सरकार के समक्ष रोजग़ार सृजन भी एक चुनौती है। मगर इन तमाम वायदों को पूरा करने से पहले माक्रों को 11 और 18 जून को आहूत संसदीय चुनाव जीतना होगा, जिसके लिए ‘नेशनल फ्रंटÓ की नेता मारीन ले पेन ने अपने कार्यकर्ताओं से एक बार फिर से ज़ोर लगाने के लिए कहा है।
इन्वेस्टमेंट और फाइनेंस की पृष्ठभूमि वाले माक्रों 2006 से 2009 तक पार्टी सोशलिस्ते (पीएस) के सदस्य रह चुके हैं। उन्हें राजनीति में ओलांद लाये थे, पर समाजवाद से मोहभंग हुआ तो माक्रों को लगा कि लेफ्ट, राइट से बेहतर ‘सेंटर पॉलिटिक्सÓ की जाए। इस बीच 2002 में फ्रांस्वां ओलांद सरकार में माक्रों को अर्थ, उद्योग और डिजिटल अफेयर्स मंत्री बनने का मौका मिला था। अगस्त 2016 में उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दिया। उससे पहले इमानुएल माक्रों 6 अप्रैल 2016 को ‘आँ मार्शÓ आंदोलन की स्थापना कर चुके थे। ‘आँ मार्शÓ से आशय था-आगे बढ़ो! ‘आँ मार्शÓ को अभी पार्टी के रूप में स्थापित करने का काम बाक़ी है।
माक्रों ने कई मौकों पर कहा है कि ‘आँ मार्शÓ आंदोलन उदारवादी व प्रगतिशील विचारधारा को आगे बढ़ाएगा। नये राजनीतिक परिवर्तन से फ्रांस की दो प्रमुख पार्टियां, सोशलिस्ट पार्टी और रूढि़वादी रिपब्लिकन के मुस्तकबिल पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है। क्या फ्रांस की राजनीति में ‘जनरेशन शिफ्टÓ हो रहा है? यह सवाल भी बहस के केंद्र में है। चुनाव में पार्टी सोशलिस्ते (पीएस) का पांचवें स्थान पर आ जाना सचमुच शर्मनाक है। 1969 से ‘पीएसÓ या तो सत्ता में होती थी या मुख्य प्रतिपक्ष में। 1971 में फांकोइस मितरां के समय पार्टी सोशलिस्ते (पीएस) की तूती बोलती थी। जो पार्टी 1981, 1988 और 2012 के चुनावों में विजयी रही, उसके राष्ट्रपति प्रत्याशी बेनोइट हेमोन को मात्र 6.35 प्रतिशत वोट हासिल हों, उससे यह बात साफ होती है कि ‘पीएसÓ के भीतर राजनीतिक अंतर्विरोधों पर काबू नहीं पाया जा सका था, और बाहर जनता ओलांद की नीतियों को नापसंद करने लगी थी। प्रत्याशी बेनोइट हेमोन, निवर्तमान राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद की ‘प्रो बिजनेस पॉलिसीÓ के मुखर आलोचक रहे हैं।
रूढि़वादी ‘लेस रिपब्लिकनÓ की हालत खस्ता है। निकोला सारकोजी की पार्टी ‘लेस रिपब्लिकनÓ 11 और 18 जून को होने वाले संसदीय चुनाव में कि़स्मत आजमाएगी। इसमें एक धड़ा नरमपंथी सोच वालों का है, जो माक्रों को सहयोग करना चाहता है। इसी पार्टी का दूसरा दक्षिणपंथी धड़ा, वामपंथियों की तरह आत्मघाती है। फ्रांस के चुनाव परिणाम से भारतीय मतदाताओं को सबक लेने की ज़रूरत है। यहां जिस तरह से दक्षिणपंथी और पॉपुलिस्ट राजनीति उभार पर है, उससे एक निराशाजनक वातावरण अवश्य है कि इस रात की सुबह होगी या नहीं। मगर, माक्रों का फ्रांस की राजनीति में एक धूमकेतु की तरह उभरना और उसका पूरी दुनिया के मानचित्र पर छा जाना एक आशावादी उदाहरण प्रस्तुत करता है। आम चुनाव जर्मनी में भी हैं, और इस परिणाम से वहां दक्षिणपंथी ताक़तों को झटका-सा लगा है। माक्रों ने जीत के तुरंत बाद मैर्केल को फोन किया था। इससे लगता है यूरोप में नये गठजोड़ का आगाज़ होगा!
बड़े धोखे भी हैं इस राह में-अभिषेक कुमार
देश में दो साल पहले जिस डिजिटल इंडिया नामक अभियान की जोरदार शुरुआत हुई थी, नोटबंदी के बाद लेनदेन के डिजिटल उपायों में बढ़ोतरी का एक नतीजा हमारे सामने मौजूद है। पर यह क्रांति दुधारी तलवार साबित हो रही है। हाल ही में यूपी के सैकड़ों पेट्रोल पंपों पर एक मामूली चिप लगाकर शायद लाखों उपभोक्ताओं को कम पेट्रोल दिए जाने के गोरखधंधे का भंडाफोड़ हो चुका है। इस बीच हर दूसरे दिन एटीएम फ्रॉड, बीपीओ के जरिये देश-विदेश में ठगी, क्लोनिंग के जरिये क्रेडिट कार्ड से बिना जानकारी धन-निकासी और बड़ी कंपनियों के अकाउंट व वेबसाइट की हैकिंग और फिरौती वसूली की घटनाएं हो रही हैं।
यूपी का पेट्रोल पंप घोटाला डिजिटल फ्रॉड की सूची में सबसे नया खेल है। उपभोक्ताओं को तो शायद इसका एहसास ही नहीं हुआ कि पूरे पैसे देकर उन्हें कम पेट्रोल देकर पेट्रोल पंप मालिकों ने कैसे उनके उपभोक्ता अधिकार की हवा निकाल दी। इस घोटाले के पीछे निश्चय ही वे पढ़े-लिखे युवा थे, जिन्हें इलेक्ट्रॉनिक्स और इंटरनेट जैसी तकनीक की अच्छी जानकारी थी। हालांकि दोष उन पेट्रोल पंप मालिकों और तेल कंपनियों का भी है जो इस फ्रॉड में खुद शामिल हुए। ऐसी हरकतें पूरे डिजिटल इंडिया अभियान को संकट में डाल सकती हैं।
डिजिटल धोखाधड़ी के क्रम में फर्जी बीपीओ खड़े करके देश और विदेश में कुछ युवाओं ने अपनी कथित प्रतिभा का इस्तेमाल लोगों को ठगने में किया है। महाराष्ट्र के सागर उर्फ सैगी नामक युवा ने जिस प्रकार रातोंरात बीपीओ फर्जीवाड़े के तहत विदेशियों को करोड़ों का चूना लगाया, उससे साबित हो गया है कि अगर कोई तकनीक की जानकारी का बेजा इस्तेमाल करना चाहे तो शुरुआत में ही उसे रोकने और उसकी धरपकड़ के ज्यादा इंतजाम अपने देश में नहीं हैं। माना जाता है कि वर्ष 2015 में पूरी दुनिया में करीब 56 लाख साइबर हमले हुए, जिनसे दो करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए। एंड्रॉयड फोनों में गड़बड़ी पैदा करने के अलावा बैंकिंग कामकाज इस वजह से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। हजारों बैंक खातों से रकम की हेरफेर, एटीएम से अपने आप पैसे निकलना और बिना उपभोक्ता की जानकारी के उसके बैंक खाते की रकम का उड़ जाना, ये घटनाएं काफी तेजी से बढ़ी हैं।
पिछले साल प्रतिष्ठित सरकारी बैंक एसबीआई ने अपने छह लाख उपभोक्ताओं के डेबिट (एटीएम) कार्ड पहले तो ब्लॉक कर दिए, फिर उन्हें ग्राहकों से वापस मंगा लिया। इस घटना के पीछे एटीएम कार्डों की क्लोनिंग को जिम्मेदार बताया जा रहा है। कई अन्य बैंकों के करीब 32 लाख उपभोक्ताओं के एटीएम कार्ड इस गोरखधंधे के शिकार हुए थे। देश में 2 लाख 1 हजार 861 एटीएम के विशाल आंकड़े को देखते हुए यह संभव नहीं लगता है कि उनके जरिये वित्तीय लेनदेन करने वाला हर ग्राहक इतना सजग होगा कि वह पैसे निकालते वक्त हर सावधानी बरत सकेगा। आज दुनिया में कोई भी बैंक तमाम उपाय करने के बावजूद इसकी गारंटी देने में समर्थ नहीं है कि उसके उपभोक्ताओं का पैसा पूरी तरह महफूज रहेगा। इस संबंध में बैंक धोखाधड़ी की जिम्मेदारी अपने उपभोक्ताओं पर ही डालने की कोशिश करते हैं।
असल में, बैंकिंग का सारा कामकाज घर बैठे कराने से लेकर कई तरह के वित्तीय लेनदेन का जो इंतजाम उपभोक्ताओं को इंटरनेट से जोड़कर किया गया है, उसने सुविधा के साथ-साथ कई मुसीबतें भी पैदा कर दी हैं। वैसे तो इस संबंध में प्राय: हर बैंक दावा करता है कि उसने अपने सर्वरों तक हैकरों की पहुंच के रास्ते में कई बाधाएं कायम की हैं, लेकिन दुनिया भर के हैकरों ने कंप्यूटरों के नेटवर्क और सर्वरों में सेंधमारी करके साबित कर दिया है कि अगर बैंक व सरकारें डाल-डाल हैं, तो वे पात-पात हैं।
साइबर हैकरों की तरफ हमारा ध्यान तभी जाता है जब वे कोई बड़ी वारदात को अंजाम दे चुके होते हैं। यह समस्या इसलिए ज्यादा गंभीर है क्योंकि ऐसी गड़बडिय़ों को रोकने में सक्षम विशेषज्ञों का अभाव है। हमारे देश में फिलहाल बमुश्किल छह-सात हजार साइबर विशेषज्ञ होंगे, जबकि पड़ोसी मुल्क चीन में सवा लाख और अमेरिका में एक लाख से ज्यादा लोग साइबर विशेषज्ञ के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। अगर वित्तीय लेनदेन के साधनों को आम उपभोक्ताओं के हित सुरक्षित रखने वाला बनाना है और उन्हें डिजिटल धोखों से महफूज करना है तो इस मोर्चे पर तेजी से काम करने की जरूरत है।
ऐसे में यदि डिजिटल अपराधी हमारी इस साख को बट्टा लगाने में सफल हो जाते हैं, तब हो सकता है कि हमारे आईटी पेशेवरों की प्रतिष्ठा पर आंच आने लगे। संभव है आईटी-बीपीओ से संबंधी कामकाज उन मुल्कों में जाने लगे, जहां की साइबर सुरक्षा चुस्त-दुरुस्त मानी जाती है।
गुल खिलाते बैक बैंचर-शमीम शर्मा
कक्षाओं में बैक बैंचर को प्राय: एक कमज़ोर अथवा शरारती विद्यार्थी समझा जाता है। या इन बैंचों पर वे विद्यार्थी बैठते हैं जो चलती क्लास में मस्ती करने के दीवाने होते हैं। शायद ऐसे ही छात्र समूह के बारे में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कहा था कि दुनिया के श्रेष्ठ दिमाग कई बार क्लासों के लास्ट बैंच पर मिल जाते हैं। परीक्षा के दिनों में लास्ट बैंच की डिमांड बहुत बढ़ जाती है। शायद इसी कारण सीटिंग प्लान बनाने वाले क्लर्क के वारे न्यारे होते हैं। कॉलेज स्टूडेंट अपनी मर्जी की सीट लेने के लिये कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं।
जिस तरह कार-स्कूटरों के एक या दो डिजिट के नम्बर भारी फीस जमा करवाने पर लिये जा सकते हैं, वैसे ही परीक्षाओं में खिड़की के साथ लगती सीट, क्लास के सबसे होशियार बच्चे के साथ वाली सीट सबकी चहेती हो जाती है। सबसे पीछे वाले बैंच की सीटों के इम्तिहान के दिनों में रेट फिक्स हो जाते हैं। बच्चे टीका लगा, दही-चीनी खा जब इम्तिहान देने जाते हैं तो सबसे आगे की सीट पर अपना रोल नम्बर देखकर कहते हैं कि दुनिया के सारे दुख एक तरफ और पेपर में सबसे आगे बैठने का दुख एक तरफ।
वैसे हर तरह के विद्यार्थी होते हैं। कुछ तो परीक्षा भवन में भी अपना गुरूर दिखाये बिना नहीं रहते। एक बार प्रश्नपत्र में लिखा था कि कोई सात सवाल करो। बच्चा भी पूरा गुरूर वाला था। उसने दस के दस सवाल कर दिये और आखिर में लिख दिया कि कोई भी सात चैक कर लो। कई ऐसे भी शेर हैं जो सालभर किताब तक नहीं खोलते और इम्तिहान के दिन बिना मुंह धोये सीधे बिस्तर से उठकर पेपर देने पहुंच जाते हैं। हैरानी तो तब होती है जब उसे सुनने को मिलता है- साला रात भर पढ़कर आया है। ऐसे भी बब्बर शेर हैं जिन्होंने ऐलान कर रखा है-ना पास होने की चिन्ता और ना फेल होने का गम। जब तक है दम, फार्म भरते रहेंगे हम।
परीक्षा पद्धति में भी नित्य प्रति बदलाव आता जा रहा है। नब्बे के दशक में प्रश्नपत्र में लिखा होता था- सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। सन् 2000 में आया कि कोई पांच प्रश्न करो। 2012 के बाद आने लगा कि सही उत्तर को सिर्फ टिक करो। साल 2020 में आयेगा- कम से कम सभी सवाल पढ़ जरूर लो। और 2025 में पेपर में लिखा मिलेगा-परीक्षा भवन आने का धन्यवाद।

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