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सरकारी सेवकों से बेगारी ने लीला नगर निगम लखनऊ

लखनऊ। नगर निगम लखनऊ की माली स्थिति ठीक नही है यह बात अब जनता भी जान चुकी है। इसके बावजूद नगर निगम में ‘‘जीरो टाॅरलेस भ्रष्टाचार’’ नारे वाली सरकार के आने के बावजूद भ्रष्टाचार कम नही हुआ है। जहां एक तरफ पाच से सात हजार के कर्मचारियों से काम लिया जा रहा है तो दूसरी तरफ पचास से अधिक स्थायी कर्मचारियों से सेवा निवृत्त, सेवारत अफसरों के घरो में निजी काम जैसे खाना बनाना, गाड़ी चलवाने आदि का काम लिया जा रहा हैं यानि वेतन नगर निगम के खजाने से और काम व्यक्ति विशेष की सेवा करना। दूसरे गत दिवस जिस तेल का खेल का खुलासा हुआ उसका काम ऐसे नगर निगम के अधिकारी के बेटे को सौपा गया है जिसे भारी विरोध के बाद हटाया गया तो उस अधिकारी ने अपने बेटे को कार्यदायी संस्था में श्रमिक के रूप में काम दिलाकर निगम के वाहनों की जिम्मेदारी दिला दी। यही नही भ्रष्टाचार की गंगोत्री का यह अलाम नगर निगम में व्याप्त है कि कार्यदायी संस्था के माध्यम से तैनात एक एक पटल में पांच से लेकर 15 वर्षो से तैनात रहकर अपना वर्चस्व जमाकर जमकर वसूली कर रहे।
नगर निगम में कार्यदायी संस्थाओं के कर्मचारियों का लेखाजोखा सटीक तो शायद कोई अफसर बता नही सकता। इसका कारण सीधा यह है कि कार्यदायी संस्था के माध्यम से बहुत बड़ा खेल निगम में वर्षों से चल रहा है। ऐसे में कार्यदायी संस्था के कर्मचारियों को अल्प वेतन देकर उनसे सरकारी जरूरी काम लिए जा रहे है। जबकि पचास से अधिक नगर निगम कर्मचारियों से सेवानिवृत्त और सेवारत अधिकारियों के यहा बेगार कराई जा रही है। इनमें आर.आर. विभाग के क्लीनर नवल किशोर यादव और शमीर कुमार क्लीनर आर.आर. विभाग को पूर्व नगर आयुक्त शैलेष कुमार सिंह के यहाॅ तैनात रखा गया है। इसी तरह सफाई कर्मचारी संजय बाबू मुख्य सचिव आवास, दीपक कुमार क्लीनर पूर्व सचिव मुख्यमंत्री सेवानिवृत्त फतेहबहादुर सिंह, प्रमोद कुमार लोडर आर आर विभाग को पूर्व मुख्य अभियंता दीपक यादव, अलमत अली लाइटर मार्ग प्रकाश विभाग को पूर्व प्रमुख सचिव नगर विकास और टिकेन्द्र सिंह को एक पूर्व मंत्री के यहाॅ बेगार करने के लिए रखा गया है। इस तरह से अनेक नाम है जो कर्मचारी तो नगर निगम के है, इनका भुगतान नगर निगम के खजाने से हो रहा है लेकिन ये काम कुछ और कर रहे। यह सीधे सीधे भ्रष्टाचार की श्रेणी का कारनामा है।
बाप हटा तो बेटे को मलाईदार पोस्ट
निगम में तैनात एक महाशय फोरमैन प्रमोद कुमार चतुर्वेदी थे, इनकी सेवानिवृत्ति फरवरी 16 में हुई। इसके बाद इन्होंने जुगाड़ कर सीट नही छोड़ी और उसी सीट पर कार्यदायी संस्था के माध्यम से जमे रहे। इसका जब विरोध हुआ वे हटाये गए तो इन्होंने अपने बेटे रोहित को कार्यदायी संस्था में श्रमिक के रूप में कार्य दिलाने के बाद 31 मई 18 को मुख्य अभियंता के हवाले से जारी एक पत्र के आधार पर निगम के वाहनों का सुपरवाईजर पद दिला दिया। यानि पिता ने अपने हटने के बाद कमाई का रास्ता बनाए रखने के लिए बेटे को श्रमिक से सुपरवाईजर बनाकर क्रेन, स्वीपिंग मशीन, पम्प आदि का काम दिला दिया।
कार्यदायी संस्था के माध्यम से नौकरी और साथ में ठेकेदारी
कार्यदायी संस्था के माध्यम से संख्या का खेल तो चल ही रहा है कार्यदायी संस्था के माध्यम से तैनात कम्प्यूटर आपरेटरों का वचस्र्व और कमाई भी नगर निगम को खोखला करने में लगी हुई है। यही नही एक तरफ जहाॅ बाबूओं को तीन तीन साल में हटाए जाने का नियम अपना जा रहा वही कप्यूटर पर कार्य देख रहे आपरेटर पाॅच से पन्द्रह वर्ष तक एक ही पटल में तैनात है। इन कप्यूटर आपरेटरों और ठेकेदारों के गठजोड की पूरे निगम में चर्चा है लेकिन अफसर जानबूझकर अन्जान बने हुए है।जैसे जोन 6 के कर विभाग में तैनात कार्यदायी संस्था के कर्मचारी परवेज अहमद 15 वर्ष से एक ही पटल पर कार्य देख रहे है। बताते है कि इनकी जोन में इतनी पकड है कि इनके सामने विभागीय अफसर फेल है। इसी जोन में हिमान्शू सिंह 6 वर्ष से एक ही पटल पर है। जबकि जोन आठ में रोहित पाॅच वर्ष तो बालकादर मार्ग प्रकाश में राहुल वर्मा आठ वर्ष, लेखा में अनिल कुमार 12 वर्ष, संदीप सिंह सात वर्ष, शुभम रस्तोगी सात वर्ष, तो राजीव टण्डन पाॅच वर्ष से तैनात है। अभियंत्रण जोन में विजय कुमार, मनोज गौतम, अजय मिश्रा पाॅच वर्ष तो महेश मिश्रा आठ वर्ष से एक ही पटल पर काम कर रहे है। अगर यह मान लिया जाए कि कार्यदायी संस्था के कर्मचारियेां पर तबादला नीति कायम नही होती तब भी इनका पटल परिवर्तन का कोई समय तो निर्धारित होना चाहिए। लेकिन निगम के अफसरों को इससे कोई लेना देना इसलिए नही है कि एक हिस्सा अफसरों के नाम पर भी इनके द्वारा वसूलकर पहुचाए जाने की चर्चा निगम में होती रहती है।
वर्तमान समय में स्थिति पूरी तरह उलट चुकी है। अब मुख्यमंत्री या मंत्री के प्रति किसी अफसर की निष्ठा उसे उसके वास्तविक दायित्वों केे पालन से दूर कर देती है। निगम अफसरों की हरकते बताती है कि उनकी नजर में ‘जनता जाए भाड़ में’ हो जाती है। निगम के अफसर का हाल ‘सैंया भए कोतवाल, अब डर काहे का’ कहावत का सुख भोगने लगा है। पिछले कई वर्षों से ऐसे अफसरों की भरमार हो गई है। अब तो प्रायः वे अफसर मुख्यमंत्री या मंत्रियों के चहेते बन जाते हैं, जो उनके लिए ‘कमाऊ पूत’ की भूमिका अदा करते हैं। जो जितनी अधिक तिकड़मों से कमाई कराए, वह उतना ही प्रिय हो जाता है। यही कारण है कि ऐसी कलाबाजी में माहिर एक उच्चाधिकारी मायावती की नाक के बाल थे। जब अखिलेष सरकार आई तो षुरू में वह किनारे कर दिए गए थे, लेकिन उन्होंने अपनी ऐसी गुट्टी फिट की कि जिस प्रकार वह मायावती की सरकार के समय उनके घोर चहेते बने हुए थे, वैसे ही वह अखिलेश यादव के चहेते हो गए। उनकी बदौलत अखिलेश-सरकार महाभ्रष्ट सरकार बन गई। योगी सरकार के विकास मंत्री सुरेश कुमार खन्ना की निगमों के प्रति अनदेखी का परिणाम यह है कि जो बसपा व सपा सरकारों में लूट का जबरदस्त जरिया बने हुए थे तथा योगी-सरकार में भी उनके पौ-बारह हैं।

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