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बल्लभकुल सम्प्रदाय के मन्दिरों में होली की धूम

मथुरा,। गुलाल और अबीर के त्योहार होली आने में अभी एक सप्ताह से अधिक का समय है मगर कान्हा की नगरी मथुरा में बल्लभकुल संप्रदाय के मंदिरों में रंगों के त्योहार की धूम मची हुयी है। बल्लभकुल सम्प्रदाय के मन्दिरों में होली की धूम मची हुई है जहां मां यशोदा कान्हा की होली के लिए रंग बिरंगे गुलाल की व्यवस्था कर रही हैं वहीं वे कान्हा के लिए तरह तरह के पकवान तैयार कर रही हैं। होली खेलने मे कान्हा को भूख लग आती है इसलिए ही वे कान्हा के लिए नाना प्रकार के व्यंजन तैयार करती हैं। मां यशोदा की भूमिका मन्दिर के मुखिया निभाते हैं। बल्लभकुल सम्प्रदाय के प्रमुख मदनमोहन मन्दिर एवं मथुराधीश मन्दिर के सेवायत आचार्य ब्रजेश मुखिया ने बताया कि राजभोग आरती में ठाकुर के लिए झारी एवं बंटा रखा जाता है जहां झारी में पीने का पानी होता है वहीं बंटा में पान की बीरी के साथ ही थाल में सूखे मेवे से बनी मिठाई जिसे सागघर कहा जाता है, रखा जाता है। कभी कभी इसमें दूधघर यानी दूध की बनी मिठाई होती है। मां यशोदा थाल में रखी सामग्री को कभी झुनझुना, कभी पालना, कभी हिंडोला, कभी वृक्ष अथवा यमुना आदि का स्वरूप अपने लाला को बहलाने के लिए देती हैं। उन्होंने बताया कि जितने समय मां यशोदा थाल सजाती हैं, उतनी देर में ही श्यामाश्याम की होली सखियों की उपस्थित में शुरू हो जाती है। राजभोग के दर्शन खुलने के बाद होली शुरू हो जाती है। इस होली से पहले गर्भगृह की पिछवाई और लाला के वस्त्रों में चन्दन और चोबा लगाया जाता है तथा लाला के कपोल में गुलाल और ठोढ़ी में अबीर लगाया जाता है। उधर बाहर सखा होली खेलने का इंतजार करते रहते हैं। द्वारकाधीश मन्दिर के जनसंपर्क अधिकारी राकेश तिवारी ने बताया कि गर्भ गृह की होली के बाद श्यामसुन्दर स्वयं सखाओं के साथ होली खेलते हैं। इसी दिशा में बल्लभकुल सम्प्रदाय के भारतविख्यात द्वारिकाधीश मन्दिर में राजभोग के दर्शन खुलने के कुछ समय के अन्तराल से ग्वालबाल कान्हा से होली खेलने के लिए बुलाते हैं तथा रसिया गायन करते हैं आज बिरज में होरी रे रसिया। कान्हा पहले ब्रजवासियों पर मन्दिर के गर्भगृह से इन्द्रधनुषी गुलाल डालते हैं तथा ग्वालबालों को उत्साहित करते रहते हैं पर बाहर निकलकर नही आते क्योंकि मां यशोदा उन्हें बाहर नही निकलने देती है।इधर ग्वाल बाल बम्ब की ताल के मध्य श्यामसुन्दर को बुलाने के लिए केवल रसिया गायन करते हैं।

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मन्दिर का चौक होली के वातावरण में डूब जाता है कुछ ग्वाल बाल नृत्य कर उठते है तथा वातावरण में गायन, वादन और नृत्य की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। बल्लभकुल सम्प्रदाय के कुछ मन्दिरों में कुंज एकादशी से तो कुछ में होलाष्टक लगते ही केसर पड़े हुए टेसू के फूलों से बने गुनगुने रंग की होली शुरू हो जाती है। पिचकारी से सेवायत भक्तों पर गुनगुना टेसू का रंग डालते हैं इधर भक्त भी श्रद्धा से अभिभूत होकर गुलाल उड़ाकर अपनी खुशी प्रकट करते हैं तथा वातावरण होलीमाय हो जाता है।

इस अवसर पर केले के पेड़ को खड़ा कर कुंज बनाया जाता है। डेाल तिवारी से चौक में वृक्ष एवं लता पता का झूला पड़ता है तथा राजभेाग के बाद इसमें प्रिया प्रियतम विराजते हैं इसमें पर्याप्त मात्रा में गुलाल अबीर आदि रख देते हैं। मां यशोदा इसके लिए चार भोग तैयार करती हैं तथा हर भोग के बाद श्यामाश्याम अल्पाहार कर कुछ समय के लिए विश्रााम करते हैं। चौथे भोग के बाद आरती होती है और राई लोन उतारकर न्योछावर सेवायत को या कीर्तनियां को दे दी जाती है और हंसी खुशी के माहौल में होली का समापन हो जाता है।

 

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