केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए विपक्षी दलों ने कम अपनों ने ज्यादा सिरदर्द पैदा किया है। पार्टी अपनों के बेलगाम बोलों से परेशान है। विपक्ष के आरोपों का सामना करने में सरकार और पार्टी को ज्यादा जोर नहीं आया। खासतौर से कांग्रेस के आरोपों का संगठन और सत्ता ने जवाब देने में कसर बाकी नहीं रखी। असली समस्या तो अपनों से निपटने में आ रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने राजनीतिक वजूद के लिए संघर्ष कर रहे पार्टी के नेता भी विपक्ष को मुद्दे थमाने में पीछे नहीं रहे। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पूरी ताकत से विकास के मुद्दे को प्रचारित कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ पार्टी में दरकिनार पड़े नेता मुश्किलें खड़ी करने में पीछे नहीं हट रहे हैं। मोदी और शाह ऐसे मुद्दों से बचना चाहते हैं, जिनसे केंद्र सरकार के विकास के कामों की चर्चा दब जाए और फालतू के मुद्दे हावी हो जाएं।
मोदी और शाह के लिए मुश्किलें खड़ी करने में जुटे हैं ‘अपने’ ही लोग- योगेन्द्र योगी
ताजमहल को लेकर चल रही बयानबाजी ऐसे ही विवादों का हिस्सा है। भाजपा के असंतुष्ट नेताओं की मजबूरी यह है कि मोदी और शाह के विकास के रास्ते की तारीफ करने से उनके वजूद को संकट खड़ा हो जाता है। क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पूछ बनाए रखने के लिए उन्हें ऐसी बयानबाजी में मशगूल होना पड़ रहा है, जिससे उनकी अलग से पहचान बनी रह सके। पार्टी उनकी मान−मनोव्वल का प्रयास करे। इसका आसान उपाय गड़े मुर्दे उखाड़ना या विवादित मुद्दों को हवा देना है। जिनका मौजूदा समस्याओं और विकास से कोसों दूर तक रिश्ता नहीं है। बेसिर−पैर के मुद्दों को उछालने से उनकी चर्चा तो होती है, साथ ही पार्टी को भी सफाई देने के लिए विवश होना पड़ता है।
विधायक संगीत सोम यदि ताजमहल के किस्से को नहीं छेड़ते तो शायद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ताजमहल भ्रमण करने भी नहीं जाते। ताजमहल के मुद्दे को विवाद में लाने का काम भी योगी सरकार ने ही किया। पर्यटन विभाग के ब्रोशर से ताजमहल का नाम ही उड़ा दिया। इसी से विधायक सोम को मौका मिल गया। उन्होंने हाथों−हाथ मुद्दा हथिया लिया। विवाद इतना ज्यादा बढ़ गया कि खुद मुख्यमंत्री योगी और यहां तक की प्रधानमंत्री को बीच−बचाव में आना पड़ा। इससे पहले मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भी भाजपा ने विधायक सोम की भड़काऊ बयानबाजी से दूरी बनाए रखी। पार्टी ने इस मुद्दे पर बयानबाजी से बचने की सलाह दी।
अकेले सोम ही नहीं पार्टी में दूसरे भी ऐसे नेता हैं, जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिलोरे ले रही है। उनकी विवशता यही है मोदी और शाह के विकास के मार्ग पर चलने से भीड़ में खो जाने का खतरा है। वैसे भी विकास की तारीफ करने से ये ही दोनों मजबूत होते हैं। इसका श्रेय भी उन्हीं को मिलेगा। राजनीति को चमकाए रखने के लिए ऐसे मुद्दों का उठाया जाता है, जिसमें मेहनत ही नहीं करनी पड़ी और नाम चमक जाए। त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत रॉय भी सोम से पीछे नहीं हैं। त्रिपुरा में विकास का क्या हाल है, इससे शायद रॉय का लेना−देना नहीं है। राज्यपाल रॉय ऐसे विवादित बयान देते रहे हैं, जिससे देश भर में उनकी चर्चा हो सके। अन्यथा त्रिपुरा जैसे दूरस्थ राज्य में क्या चल रहा है, किसी को खबर ही नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आतिशबाजी पर प्रतिबंध लगाने पर रॉय ने विवादित बयान दिया। राज्यपाल रॉय के बयान पर सुप्रीम कोर्ट तक ने हैरानी जताई कि कुछ लोग इसे साम्प्रदायिकता से जोड़ कर देख रहे हैं। जबकि यह मुद्दा पूरी तरह से पर्यावरण से जुड़ा हुआ है।
आश्चर्य तो यह है कि रॉय राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर रहते हुए भी विवादित बोल से बाज नहीं आते। इससे पहले भी संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए रॉय के रोहिंग्या मुसलमानों पर दिए बयान से खूब बखेड़ा हुआ। विवादों की इसी कड़ी में पिछले दिनों वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा का नाम भी जुड़ गया। दरअसल सिन्हा भी लंबे अर्से से राजनीतिक वनवास भोग रहे हैं। कभी वित्तमंत्री और पार्टी के महत्वपूर्ण नेताओं में शुमार रहे सिन्हा अब खुद को अलग−थलग महसूस कर रहे हैं। यही कोफ्त शायद बर्दाश्त नहीं हो पा रही है। सिन्हा केंद्र में प्रारंभ की तीन वर्षों तक वनवास के खत्म होने का इंतजार करते रहे। बाजी हाथ से निकलते देख सिन्हा भी खुली मुखालफत पर उतर आए। जीएसटी और नोटबंदी पर सरकार के विरुद्ध बयानबाजी करके सुर्खियों में छाए रहे। इस पर दोनों तरफ से आरोप−प्रत्यारोपों के खूब तीर चले।
बिहारी बाबू के नाम से मशहूर शत्रुघ्न सिन्हा भी गाहे−बेगाहे अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का इजहार बयानबाजी करके करते रहते हैं। अभिनेता से नेता बनकर पार्टी का दामन थामने वाले सिन्हा को भी भाजपा में भाव नहीं मिला। बड़बोलेपन से पार्टी के लिए सिरदर्द पैदा करने वालों में उत्तर प्रदेश से भाजपा सांसद साक्षी महाराज भी कट्टर हिन्दुत्वादी छवि को भुनाने में पीछे नहीं हैं, जबकि पार्टी और केंद्र सरकार ऐसे मुद्दों को पीछे धकेल चुकी है। केंद्र सरकार की स्पष्ट मंशा है कि आगामी चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जाए। यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी बार−बार अपने सम्बोधनों में 2022 तक देश की तस्वीर बदलने की पैरवी करते हैं। सरकार के पास विकास के मामले में गिनाने के लिए काफी कुछ है। इसके विपरीत कट्टरवाद से विकास विरोधी छवि का खतरा पैदा होता है। जिसे छुटभैय्या नेता मौके−बेमौके उछाल चर्चा में बने रहना चाहते हैं।
दरअसल साक्षी महाराज भी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। यह मंशा पूरी नहीं हो सकी। अब चूंकि कोई जिम्मेदारी का संवैधानिक पद नहीं है तो बोलों पर लगाम भी नहीं है। गाय रक्षकों के मामले में विधायक सोम और साक्षी महाराज की बयानबाजी से केंद्र सरकार की खूब फजीहत हुई, आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी को कड़ा रुख अख्तिायार करना पड़ा। इसके बाद ही इस पर कुछ लगाम लग सकी।
केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी कामकाज के बजाए विवादित बयानों से छवि चमकाने का विफल प्रयास किया। मोदी सरकार ने विभाग बदल कर संदेश दे दिया कि दूसरे मंत्रियों की तरह काम तो करके दिखाना ही पड़ेगा। अन्यथा दूसरे नाकाबिल साबित हुए मंत्रियों की तरह बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगेगी। केंद्र में सत्ता में आने से पहले असंतुष्ट नेताओं को लगता था कि उनकी भी महत्वपूर्ण भागीदारी होगी। इसके विपरीत मोदी अकेले दम पर सत्ता का रथ सफलतापूर्वक हांक ले गए। इससे सत्ता में हिस्सेदारी की मंशा पाले साक्षी, सोम और सिन्हा जैसे नेताओं की ख्वाहिश पूरी नहीं हो सकी। यह भी निश्चित है कि जिस रफ्तार से मोदी और उनके सारथी बने शाह का सत्ता का रथ राजपथ पर दौड़ रहा है, उसकी गति थामने के असंतुष्टों के मंसूबे आसानी से पूरे नहीं होंगे, जब तक कि रथ ही विकास की पटरी से उतर कर भटक नहीं जाए।