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एजेंडा विहीन अनौपचारिक वार्ता से उम्मीदें कम

डॉ. रहीस सिंह
सरकार को अब यह स्पष्ट करना चाहिए कि मोदी और शी ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) को लेकर बात की है या नहीं। यदि की है तो क्या? हमारे अनुमान के अनुसार चीन सीपेक से पीछे नहीं हटेगा। दूसरा यह कि क्या चीन हम्बनटोटा किए जा रहे सैन्यीकरण पर भारतीय चिंताओं को स्वीकार किया है? मालदीव में भारतीय रणनीतिक हितों पर उसका नजरिया क्या है? बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव पर भारत ने चीन को क्या आश्वासन दिया है? ध्यान रहे कि यदि भारत इस पर सकारात्मक रुख नहीं विकसित करता तो चीन मैत्रीपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाएगा।
आजकल विदेश नीति और कूटनीतिक उपलब्धियां आधारभूत समझौतों से कम कुछ शब्दों से अधिक होती हैं। मोदी-जिनपिंग मुलाकात के लिए भी चीनी विदेश मंत्री ने श्वन-ऑन-वनश् शब्द का प्रयोग किया था लेकिन भारत की मीडिया में हर्ट-टू-हर्ट शब्द भी चलन में आ गया। हेड-ऑन-हेड भी एक और शब्द हो सकता था। लेकिन इन शब्दों के निहितार्थ क्या हैं? क्या ये ग्लोरफाई करने के लिए ही प्रयुक्त होते हैं? अगर इनमें सच्चाई है तो हर्ट-टू-हर्ट जैसी शब्दावली तो जट्टी उमरा (लाहौर) में मोदी-नवाज शरीफ की मुलाकात के समय भी प्रयुक्त हुयी थी, लेकिन परिणाम क्या आए थे? सवाल यह उठता है कि मोदी-जिनपिंग की वुहान में हुयी दो दिवसीय अनौपचारिक बैठक के परिणाम कितने बेहतर आएंगे और ये भारत-चीन सम्बंधों के लिए कितने लाभदायक होंगे, क्या इस पर स्पष्ट, आँकड़े सहित और तथ्यपरक निष्कर्ष निकाला जा सकता है? विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने दोनों नेताओं के बीच हुई अनौपचारिक बातचीत पर खुशी जाहिर की है। विदेश सचिव विजय गोखले की हवाले से न्यूज एजेंसी ने लिखा है कि दोनों नेताओं ने आतंकवाद को साझा $खतरा बताया और इस पर रोक लगाने के लिए सहयोग बढ़ाने को लेकर प्रतिबद्धता जाहिर की। जबकि प्रधानमंत्री ने शी जिनपिंग के साथ सैर करते हुए अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए लिखा है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बातचीत का फोकस भारत-चीन सहयोग के विभिन्न क्षेत्रों पर था। हमने अपने आर्थिक सहयोग गति देने के तरीकों पर बात की साथ ही लोगों के बीच रिश्तों को लेकर चर्चा हुई। हां प्रधानमंत्री मोदी ने निजी एजेंडा (एजेंडा ऑफ पापुलिज्म) अवश्य पूरा किया। उन्होंने कहा कि भारत के लोग गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं कि राष्ट्रपति शी ने राजधानी से बाहर आकर दो बार उनकी अगवानी की। उनका कहना था शायद मैं ऐसा पहला भारतीय प्रधानमंत्री हूं जिसकी अगवानी के लिए आप दो बार राजधानी से बाहर आए। कुछ अन्य सोशल मीडिया वक्तव्य, बस इसके अतिरिक्त कुछ भी ऐसा नहीं दिखा जो यह साबित करे कि शी जिनपिंग की तरफ से किसी खास मुद्दे या मुद्दों पर भारत को कोई वचन दिया गया। मेरी समझ से विदेश नीति एक-दिनी मैच की तरह नहीं होती। मोदी जी के ईस्ट लेक पर टहलने से न ही भारतीयों को कोई तोहफा मिला और न उनके पास से कुछ छिन गया। जिनपिंग ने उनकी कितनी बार आगवानी की और इससे कितने बार भारत का सिर गर्व से ऊंचा उठा, यह मोदी जी का वैयक्तिक और पसंदीदा एजेंडा है, जो कूटनीतिक में कोई खास महत्व नहीं रखता। इससे भारत के कूटनीतिक अंकगणित की अब तक की संख्या के बाद कोई शून्य नहीं बढ़ा, इतना तय है। इस संदर्भ में कुछ बिंदुओं पर गम्भीरता से विचार करना होगा तो स्वयं निष्कर्ष तक पहुंचा देंगे। पहली बात तो यह कि वुहान में मोदी-जिनपिंग मीटिंग अनौपचारिक थी, जिसमें कोई संयुक्त बयान नहीं दिया जाना था। फिर यह कैसे मान लिया गया कि जिनपिंग ने भारत की तरफ से रखे गये कितने प्रस्तावों को माना है और कितने को नहीं। दूसरी बात प्रधानमंत्री की वुहान (चीन) यात्रा आकस्मिक थी। यानि न ही लक्ष्य तय थे और न ही कोई एजेंडा तय था। चाइना डेली इसे लिखा भी है। फिर किस तरह से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा रहा है कि मीटिंग सफल रही और भविष्य के लिए एक गैर-अवरोध वाला मार्ग निर्मित हो गया। उसने यह भी लिखा कि दोनों नेताओं को केवल कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करना था, विशेष रूप से ग्लोबल गवर्नेंस और साझा अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों पर। भारत के विदेश मंत्रालय की तरफ से भी जो कार्यक्रम जारी किया गया था, उसमें केवल इस बात का ही जिक्र था कि प्रधानमंत्री की इस दो दिवसीय यात्रा के दौरान शी जिनपिंग से 6 बार मिलने की योजना है। इसमें वार्ता सम्बंधी कोई विषय नहीं थे। चीन के विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी की तरफ से यह जरूर बताया गया कि दोनों नेताओं ने मुक्त व्यापार को बनाए रखने के महत्व पर बल दिया। यह विषय इसलिए उठा क्योंकि चीन संयुक्त राज्य अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के साथ व्यापार पर बढ़ती लड़ाई में उलझ चुका है। दरअसल अमेरिकी प्रशासन ने चीन की लगभग1300 से अधिक वस्तुओं पर सैकड़ों अरब की टैरिफ लगाने की धमकी दी है। चूंकि चीन और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार लगभग 600 बिलियन डॉलर का है, इसलिए अमेरिकी टैरिफ चीन के लिए अत्यधिक हानिप्रद हो सकती हैं। अब चीन की मंशा है कि भारत संरक्षणवाद के मुद्दे पर अमेरिका का विरोध करे और वैश्वीकरण के मुद्दे के साथ चीन के साथ खड़ा हो। चीनी अखबार ने लिखा है कि नरेन्द्र मोदी और शी जिनपिंग ने वुहान में 27-28 अप्रैल को द्विपक्षीय मुद्दों, जैसे कि रोड एंड बेल्ट इनीशिएटिव (बीआरआई) जिसमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपेक) भी शामिल था, बातचीत की। इसके साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद,जो डोकलाम पर दोनों देशों के निर्णय के बाद आरम्भ हो गया था, भी बातचीत में शामिल था। लेकिन फोकस डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीति और विश्व व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) में पिछले 100 वर्षों में आए अभूतपूर्व परिवर्तनों से कहीं अधिक था। चीनी मीडिया ने इस बात पर ज्यादा जोर दिया है कि जून में शंघाई सहयोग संगठन की कुआंगदाओ बैठक से पहले ही मोदी-जिनपिंग मुलाकात यह दिखाती है कि दोनों पक्ष आपसी संबंधों को कितना महत्व देते हैं। उसके अनुसार चीन के भीतर भारत के प्रति शत्रुता को मित्रवत संबंधों की उम्मीदों से प्रतिस्थापित किया जा रहा है। दोनों देशों को आगे बढ़ने के लिए आवश्यक संवाद के लिए जरूरी है कि पारस्परिक विश्वास में वृद्धि और सीमा संकट की संभावनाओं को कम किया जाए। चीनी मीडिया जो भी लिख रहा है मतलब यह कि सरकार उसे डिक्टेट कर रही है क्योंकि वहां की मीडिया स्वतंत्र न होकर सरकार का मुखपत्र है। मतलब यह कि चीन की सरकार और उसकी मीडिया भारत के लोगों और प्रधानमंत्री को यह बताना चाहती है कि अमेरिका और जापान ने इण्डो-पैसिफिक रणनीति पर पिछले वर्ष काम शुरू किया था जिसका उद्देश्य चीन को घेरना था। ध्यान रहे कि भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने मिलकर रणनीतिक चतुर्भुज (च्ैड) का निर्माण किया था। इस च्ैड का एक उद्देश्य चीन को घेरना भी था। अब चीन नई दिल्ली पर डोरे डाल रहा है, यह च्ैड नई दिल्ली और बीजिंग के हित में नहीं है इसलिए इन दोनों को एक दूसरे पर निगरानी रखने को छोड़कर रचनात्मक कार्यों की ओर मुड़ना चाहिए। चीन अब भारत को पढ़ा रहा है कि पश्चिम चीन और भारत को एक-दूसरे से मुकाबला कराना चाहता है। जबकि भारत और चीन को एक दूसरे के साथ सौदेबाजी और हेरफेर करने की जरूरत नहीं है। इसमें कोई संशय नहीं है कि भारत को चीन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए क्योंकि कोई फायदा नहीं है। लेकिन हमें यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार को मसला चीन-अमेरिका के मुकाबले भारत-चीन में कहीं ज्यादा निकटता स्थापित कर देगा। चीन-अमेरिका का द्विपक्षीय व्यापार 600 बिलियन डॉलर का है जो 84 बिलियन डॉलर के भारत-चीन व्यापार को बौना बना देता है। सरकार को अब यह स्पष्ट करना चाहिए कि मोदी और शी ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) को लेकर बात की है या नहीं। यदि की है तो क्या? हमारे अनुमान के अनुसार चीन सीपेक से पीछे नहीं हटेगा। दूसरा यह कि क्या चीन हम्बनटोटा किए जा रहे सैन्यीकरण पर भारतीय चिंताओं को स्वीकार किया है? मालदीव में भारतीय रणनीतिक हितों पर उसका नजरिया क्या है? बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव पर भारत ने चीन को क्या आश्वासन दिया है? ध्यान रहे कि यदि भारत इस पर सकारात्मक रुख नहीं विकसित करता तो चीन मैत्रीपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाएगा। चीन चाहता है कि भारत दलाई लामा और तिब्बत पर चीन की संवेदनाओं को समझे लेकिन क्या उसने कश्मीर मामले और पाकिस्तान आधारित आतंकवादियों के विषय पर भारतीय संवदेनाओं को समझने पर सहमति दी है? फिलहाल बिना एजेंडे और लक्ष्य के अनौपचारिक वार्ताएं इससे पहले भी मोदी जी पाकिस्तान के साथ कर चुके हैं। इसलिए कूटनीति का आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित विश्लेषण करने वाला बस इतना ही कहेगा कि इस तरह की यात्राओं से रिश्तों पर जमीं बर्फ पिघलती है लेकिन कितनी पिघली यह निष्कर्ष वह नहीं निकाल सकता, मैं भी नहीं।

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