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देश की सरकारी संस्थाओं को निजीकरण करने के पीछे मोदी सरकार का क्या है। मकसद।

संवाददाता अखिलेश दुबे

लखनऊ | देश के सबसे बड़े अस्पताल का नाम मेदांता नहीं एम्स है। जो सरकारी है। सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज का नाम आई आई टी है। जो सरकारी हैं। सबसे अच्छे मैनेजमेंट कॉलेज का नाम आई आई एम है। जो सरकारी हैं। देश के सबसे अच्छे विद्यालय केन्द्रीय विद्यालय हैं। जो सरकारी हैं। बीमा उद्योग में विश्व की सबसे बड़ी और सबसे अच्छी कम्पनी भारतीय जीवन बीमा निगम है। जो सरकारी है। देश के एक करोड़ लोग अभी या किसी भी वक़्त अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए सरकारी रेल में बैठते हैं। नासा को टक्कर देने वाला आई एस आर ओ अम्बानी नहीं सरकार के लोग चलाते हैं। सरकारी संस्थाएँ फ़ालतू में बदनाम हैं।अगर इन सारी चीज़ों को प्राइवेट हाथों में सौंप दिया जाए। तो ये सिर्फ़ लूट-खसोट का अड्डा बन जाएँगी। निजीकरण एक व्यवस्था नहीं बल्कि नव- रियासतीकरण है। अगर हर काम में लाभ की ही सियासत होगी। तो आम जनता का क्या होगा। कुछ दिन बाद नवरियासतीकरण वाले लोग कहेगें कि देश के सरकारी स्कूलों, कालेजों और अस्पतालों से कोई लाभ नहीं है। अत: इनको भी निजी हाथों में दे दिया जाय। तो आम जनता का क्या होगा। अगर देश की आम जनता प्राइवेट स्कूलों और हास्पिटलों के लूटतंत्र से संतुष्ट हैं। तो रेलवे, बैंकों एवं अन्य सरकारी संस्थाओं को भी निजी हाथों में जाने का स्वागत करें। नही बेहतर व्यवस्था बनाने के लिए सरकार बनायी है। न कि सरकारी संपत्ति मुनाफाखोरों को बेचने के लिए,अगर प्रबंधन सही नहीं,तो सही करें। भागने से तो काम नही चलेगा। एक साजिश है। कि सूत्रो के अनुसार पहले सरकारी संस्थानों को ठीक से काम न करने दो, फिर बदनाम करो, जिससे निजीकरण करने पर कोई बोले नहीं, फिर धीरे से अपने आकाओं को बेच दो। जिन्होंने चुनाव के भारी भरकम खर्च की फंडिंग की है। पार्टी फण्ड में गरीब मज़दूर, किसान पैसा नही देता बल्कि पूंजीपति देता है। और पूंजीपति दान नहीं देता,निवेश करता है। और चुनाव बाद मुनाफे की फसल काटता है। जब जनता निजीकरण का विरोध करेगी। तभी सरकार को अहसास होगा। कि अपनी जिम्मेदारियों से भागे नहीं। सरकारी संपत्तियों को बेचे नहीं। अगर कहीं घाटा है। तो प्रबंधन ठीक से करें। लूटखसोट बंन्द कराये।

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