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विचार मंथन 19-4-2017

1-नए दौर में बीजेपी
ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बीजेपी ने अपनी भावी रणनीति के संकेत दिए। दरअसल आगामी कुछ विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर पार्टी की रणनीतिक दिशा धीरे-धीरे बदल रही है। बैठक के लिए ओडिशा का चयन भी उसी रणनीति का हिस्सा था।
ओडिशा से पहले पांच और राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से तीन अहम सूबों गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में बीजेपी का मुकाबला कांग्रेस से है और इनमें उसको अपने लिए कोई बड़ी समस्या नहीं दिख रही। लेकिन ओडिशा में चुनौती अलग तरह की है। बीजेपी यह मानकर चल रही है कि कांग्रेस को वह अपने सामने नहीं टिकने देगी। लेकिन देश पर एकछत्र राज करने का उसका सपना तभी पूरा होगा जब वह क्षेत्रीय राजनीति के ताकतवर प्रतिनिधियों को मात दे। अभी तक वह गैर-कांग्रेसवाद के अगुआ के तौर पर इनको साथ लेकर चलने का ही दावा करती रही है। लेकिन यहां से आगे उसे नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और एम करुणानिधि जैसे नेताओं से टकराना होगा।
केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की चुनौतियां थोड़ी अलग हैं, लेकिन देर-सबेर ये राज्य भी उसके अजेंडा पर आएंगे। कार्यकारिणी के प्रस्तावों से लगा कि अभी बीजेपी अपने सारे मोर्चे मोदी ब्रैंड के जरिए ही सर करने वाली है। माहौल बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी को पी2जी2 (प्रो पीपल, गुड गवर्नेंस) का मंत्र दिया। साफ है कि अगले विधानसभा चुनावों में विकास से ज्यादा गरीब समर्थक योजनाओं पर जोर रहेगा। वैसे भी मोदी सरकार के पास अभी विकास के नाम पर दिखाने के लिए कुछ खास नहीं है और कहीं-कहीं विकास की माला जपने से उसको कुछ नुकसान भी हो सकता है। ओडिशा में बहुराष्ट्रीय और भारतीय निजी कंपनियों की कुछ बड़ी परियोजनाओं का काफी विरोध भी हुआ। ऐसे में बीजेपी को अपनी गरीब समर्थक ब्रैंडिंग ज्यादा काम की लग रही है।
ममता बनर्जी की श्प्रो पीपल्य इमेज की काट भी इसके जरिए ढूंढी जा सकती है। पार्टी ने यूपी में जिस ओबीसी कार्ड को अच्छी तरह भुनाया, उसे वह आगे भी चलते रहना चाहती है। इसके लिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पिछड़ा वर्ग आयोग से जुड़ा एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें इसको संवैधानिक दर्जा देने के लिए सरकार की प्रशंसा की गई और इसमें अड़ंगा लगाने के लिए विपक्षी दलों को कोसा गया। कहा जा सकता है कि 2014 में केंद्र और फिर धीरे-धीरे कई प्रदेशों की सत्ता हासिल करके बीजेपी ने पूरे भारत पर अपनी पकड़ बनाने के अभियान का एक दौर पार कर लिया है। इसका दूसरा दौर अब शुरू होने जा रहा है, जिसकी चुनौतियां थोड़ी अलग हैं। देखना है, पार्टी इस दौर के लिए खुद को कितना तैयार कर पाती है।

2-तीन तलाक रू एक कदम आगे
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपनी एक महत्वपूर्ण बैठक के बाद एक ही बार में दिए गए तीन तलाक को लेकर कुछ बड़ी घोषणाएं की हैं। बोर्ड ने कहा है कि किसी मुस्लिम परिवार में पति-पत्नी के बीच हुई अनबन का निपटारा परिवार के बुजुर्गों की मौजूदगी में करने का प्रयास किया जाए। उसके बाद भी मामला न सुलझे तो फिर शरई (कुरआन शरीफ में वर्णित) तरीके से एक-एक महीने की अवधि पर तीन तलाक देकर शांतिपूर्वक अलग हुआ जा सकता है। इसके विपरीत गैर-शरई तरीके से तलाक देने वालों का सामाजिक बहिष्कार करने का आह्वान किया गया है।
बोर्ड ने इसके लिए मेवात इलाके की मिसाल दी है, जहां लोगों ने एक ही बार में तीन तलाक देने वालों को समाज से बहिष्कृत करने का फैसला किया तो वहां ऐसी घटनाओं का होना बंद हो गया। निश्चित रूप से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की यह अच्छी पहल है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ कुछ मुश्किलें भी हैं। जैसे, बहिष्कार के फैसले को लागू कैसे किया जाएगा, इस पर कुछ नहीं कहा गया है। ताकतवर लोग समाज को आसानी से मैनेज कर लेते हैं, और महानगरों में तो समाज का किसी पर जोर ही नहीं चलता। सबसे चिंताजनक पक्ष यह कि इसमें पीडिघ्त महिला की हिम्मत बढ़ाने वाली, उसके शारीरिक, मानसिक, आर्थिक नुकसान की भरपाई करने वाली कोई बात नहीं है।
समझना कठिन है कि बोर्ड अगर एक बार में दिए गए तीन तलाक को गलत मानता है, इतना गलत कि इसे अंजाम देने वाले व्यक्ति को समाज से अलग-थलग कर दिया जाए, तो फिर पीडिघ्त महिला एक सम्मानित भारतीय नागरिक के रूप में जिंदा रहने का अपना अधिकार अदालत से हासिल कर सके, इसमें उसको क्या परेशानी है? इस रूढिघ्वादी रवैये के पीछे शायद मुस्लिम समुदाय का यह भय काम कर रहा है कि एक बार उसकी धार्मिक रीतियों में अदालत और सरकार की घुसपैठ हो गई तो फिर धर्म के मूल में भी बाहरी हस्तक्षेप की गुंजाइश बन जाएगी। यही समय है कि पूरा भारतीय समाज मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील हिस्से के साथ खड़ा हो और उसे यकीन दिलाए कि अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता पर इस देश में कभी आंच नहीं आने दी जाएगी।
3-हालात से उपजे सामाजिक संबंधों का सच-मीरा गौतम
चंद्रकिशोर जायसवाल के कहानी-संग्रह श्खट्टे नहीं अंगूर्य में चैदह कहानियां संगृहीत हैं। बिहार की मिट्टी और भूगोल में जन्म लने वाली इन कहानियों को आंचलिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन कहानियों की घर-गलियों में ताजा सदी की जोरदार हवा का प्रवेश हो चुका है। देशज शब्दों में भाषा-ध्वनियों के बावजूद इन कहानियों में उत्सवधर्मी-लोकरंग नहीं है। चुटीले अंदाज में श्सेंस ऑफ ह्यूमर्य मौजूद हैं जो संग्रह के शीर्षक के अनुरूप पलायन नहीं सवालों से सीधा मुठभेड़ करके, सही उत्तर की गहरी परतों को तोड़, पाठक से मुखातिब होता है। ये कहानियां रेणु की उपन्यास कथा श्परती परिकथा्य और श्मैला आंचल्य से आगे जाती दिख रही हैं। श्मैला आंचल्य तो बिहार की गंगा और कोसी की बाढ़ से गुजरता हुआ, स्थानीय बोलियों की उच्चरित भाषा ध्वनियों के लिए ही मूलतरू लिखा गया था।
श्उठ भाई पतुकी सलाम भाई चूल्हा्य कहानी में बाढ़ की अफवाह ने सामाजिक रिश्तों की पड़ताल के बहाने अनेक मानवीय सवाल खड़े कर दिए हैं। अपनी हैसियत और पड़ोसी को उसकी औकात बताने के लिए बैजनाथ मंडल मूंछों पर ताव देकर मृत्यु-शैया पर पड़े पिता की मौत का इंतजार करता है ताकि उसके महाभोज के बहाने बलभद्र मिसिर को नीचा दिखा सके। पिता के मरने पर महाभोज में बिन बुलाई उमड़ती भीड़ देखकर खुद ही बाढ़ की अफवाह उड़ा देता है। कहानी के शीर्षक में पतुकी मिट्टी का पतीला है जिसमें शोक-भोज के समय खीर आदि पकाई जाती है। हाथ में पत्तर लिए भाग खड़े होते लोग, बाढ़ की खबर सुनकर बांध का काम देखने वाला दुम दबाकर जीप में नौ दो ग्यारह होता ओवरसियर, प्राणों की गुहार लगाते बैठे-बैठे जल-समाधि लेते बुजुर्ग, सरकारी मुआवजा डकारते सरकारी कारिंदों को यहां देखा जा सकता है। बाढ़ में गुमनाम लाशों के लिए पलाश के तीन सौ साठ पत्ते श्पर्ण शव दाह्य के लिए जुटाए जाते हैं।
कहानी श्के बोल कान्हा गुआला रे्य साफ कहती है कि हिंदी के प्रथम कवि विद्यापति कामोद्रेक के कवि हैं भक्ति के नहीं। इस प्रश्न को हवा के तार पर टांगकर हिंदी के आलोचक चुपकी साध कर बैठ गए हैं। कहानी में गीतों के रसिया गवैया जी को सुनने यौवनाएं और गत यौवनाएं आ जुटती हैं। इनके कण्ठों और रोजमर्रा की बोलचाल में विद्यापति हर क्षण जिंदा हैं। कहानी सवाल खड़ी करती है। पहली कि क्या उपेक्षित हिंदी और हिंदी साहित्य के कवि विद्यापति की लोकप्रियता महज मिथिलांचल में ही सीमित क्यों रह गयी है?
श्खट्टे नहीं अंगूर्य फुलबरिया पंचायत के मुखिया रामसागर मेहता की उस महत्वाकांक्षा की कहानी है जो मुखियागीरी किसी सूरत में छोडना नहीं चाहता। महिलाओं के लिए आरक्षित इस सीट के लिए वह अपनी अनपढ़, अशिक्षित और अंधविश्वासी पत्नी को चुनाव के लिए खड़ा करता है। पत्नी के घबरा जाने पर मुखिया कहता है कि बस तुम्हें तो सीट ही संभालनी है। गांडीव धनुष मेरे हाथ में होगा और युद्ध का संचालन भी मैं ही करूंगा। अंगूठा छाप पत्नी को हस्ताक्षर करना सिखा दिया जाता है और चुनाव चिन्ह हारमोनियम उसके गले में टांग दिया जाता है।
श्मानबोध बाबू्य कहानी के शीर्षक और नायक दोनों की बुनियाद हैं। मान बोध बाबू ही है। बड़े रहस्यमय हैं। ट्रेन के डिब्बे में बैठे-बैठे महानगरों की सैर करा देते हैं। कलकत्ता आने से पहले श्गश्य खाकर रामप्यारे हो जाते हैं। ट्रेन का कोई श्रोता सड़क पर बेहोश गिरे मानबोध बाबू को अस्पताल ले जाने की जहमत नहीं उठाता।
श्दरार्य कहानी में कालेश्वर अपराध की ओर बढ़ रही युवा मानसिकता का प्रतीक है जो डाकू बनकर अपने ही घर-गांव में डाके डालने लगता है। श्पुत्र पक्ष्य गया के उन पंडों की कारगुजारियों से भरी कहानी है जो तर्पण को आए जजमानों के वंशजों से कर्जा वसूलने गली-घरों का पता पूछते बीसों साल बाद वहां पहुंच जाते हैं। अमेरिका में बसे श्मैट्रिमोनियल तस्वीर्य कहानी के नायक नीलमणि का सपना उस समय चकनाचूर हो जाता है जब भारतीय संस्कृति की पक्षधर लड़की विवाह पूर्व सिंगापुर के रिवाज के अनुसार चित्रकार के हाथों बने अपने नग्न चित्र को उसे भेंट करती है। घास और घोड़ा कहानी में बाबुओं की उस मानसिकता को दिखाया गया है जहां रिश्वतखोरी के लिए वह अपने दोस्त के रिटायरमेंट के कागज भी आगे नहीं सरकने देते। श्आस्था्य एक बंगाली भिखारिन की कहानी है जिसे एक दंपति बेटी की तरह पालते हैं। प्रेम की ऊष्मा आपसी विश्वास को बढ़ा देती है और एक असहाय का पुनर्वास हो जाता है। इसके विपरीत श्सूराख्य कहानी गांवों के उन नेताओं की कहानी है जो दृढ़ता की आत्मीय दीवारों में भी सूराख कर देते हैं। श्समाधान्य कहानी कर्ज के बोझ से लदे आत्महत्या करने वाले किसानों की समस्या पर केंद्रित है। पूरे संग्रह की कहानियां रोचक शैली में समाधान की तरफ बढ़ रही हैं। लेखक की परिपक्व कलम ने बिहार के बहाने पूर देश का चेहरा दिखा दिया है |

4-भारतीय चिंतन की अविराम परंपरा का स्मरण-बी.पी. नारायण
आगरा में भारत सरकार का केंद्रीय हिंदी संस्थान है, जो हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास ही नहीं करता, हिंदी भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को प्रतिवर्ष पुरस्कृत-सम्मानित भी करता है। इस वर्ष साहित्य के लिए राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार चित्रा मुद्गल और पत्रकारिता के लिए गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा को दिए जाने का निर्णय हुआ है। उन्हें पांच-पांच लाख रुपये प्रदान किए जाएंगे। संस्थान त्रैमासिक पत्रिका श्गवेषणा्य प्रकाशित करता है, जिसमें देश-विदेश के प्रतिष्ठित हिंदी लेखक और विद्वानों के निबंध और चिंतनपरक लेख प्रकाशित किए जाते हैं। संस्थान के संरक्षक डॉ. कमल किशोर गोयनका के परामर्श पर श्गवेषणा्य का ताजा अंक मनीषी और अप्रतिम निबंधकार पंडित विद्यानिवास मिश्र पर केंद्रित किया गया है।
श्गवेषणा्य के प्रधान संपादक प्रो. नंद किशोर पांडेय ने ठीक ही लिखा है कि पं. विद्यानिवास मिश्र का स्मरण भारतीय चिंतन परंपरा के अविरल, अभिनव तथा अविराम परंपरा का स्मरण है।
श्गवेषणा्य के श्पं. विद्यानिवास मिश्र विशेषांक्य के अतिथि संपादक दयानिधि मिश्र ने लिखा है कि आधुनिक ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में प्रमुख विद्यानिवास मिश्र के लेखन की परिधि व्यापक है। वे पद्मभूषण से सम्मानित हुए और राज्यसभा के नामित सदस्य बने। भोजपुरी के ग्रामीण अंचल से आने के कारण गांव की मिट्टी की सोंधी गंध उन्हें प्रिय थी। रीवां, गोरखपुर, लखनऊ, बनारस, आगरा और दिल्ली में जीवन का बड़ा हिस्सा बिताया। विदेश प्रवास भी किया, पर बनारस उन्हें सर्वाधिक प्रिय रहा।
एक लेखक के रूप में मिश्र जी का साहित्य की दुनिया में प्रवेश निबंध संग्रह श्छितवन की छांह्य से हुआ। उसके बाद वे लगभग छह दशक तक अनवरत सक्रिय रहे। जीवन की विविधताओं जैसा ही उनका रचना जगत भी बहुआयामी है। इनमें निबंध, काव्य, अनुवाद, कोश निर्माण, लोक साहित्य, संपादन आदि के अंतर्गत विविध प्रकार के साहित्य का सृजन किया। सन् 1926 में जन्मे मिश्र जी का एक दुर्घटना में सन् 2005 में देहावसान हो गया।
विशेषांक का आरंभ शिवनारायण के आलेख श्लोक संस्कृति का सौंदर्य्य से हुआ है, जिसमें उन्होंने पं. विद्यानिवास मिश्र के सन् 1953 में प्रकाशित ललित निबंधों के पहले संग्रह श्छितवन की छांह्य पर आत्मीयता से लिखा है- श्छितवन की छांह्य के सत्रह निबंधों में अधिकांश भावात्मक हैं, जिनमें ग्रामीण चेतना और उसकी संस्कृति के दर्शन हो जाते हैं, जिसकी शैली में एक प्रकार के पांडित्य और सहजता के अनूठे मेल लक्षित करते हुए अज्ञेय ने टिप्पणी की है कि श्सर्जनात्मक गद्य के रचयिताओं में विद्यानिवास मिश्र अग्रगण्य हैं।
पूरे अंक में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शिवप्रसाद सिंह, गिरिराज किशोर, रामदरश मिश्र, रामनारायण उपाध्याय, कृष्णबिहारी मिश्र, कैलाश वाजपेयी, शीन काफ निजाम, मैनेजर पांडेय, अच्युतानंद मिश्र, बच्चन सिंह, बलदेव बंशी, उदयप्रताप सिंह, प्रयाग शुक्ल, विश्वनाथ सचदेव, सूर्यकांत बाली, कृपाशंकर चैबे, भगवान सिंह, अनामिका, वागीश शुक्ल, विश्वनाथ सचदेव, एस.शेषारत्नम, रेवती रमण, श्यामसुंदर दुबे, श्राराम परिहार, प्रकाश मनु, अनिल राय, नीरजा माधव, प्रेमशंकर, फूलचंद मानव, अमरनाथ अमर, नर्मदाप्रसाद उपाध्याय, सूर्यबाला, प्रकाश मनु और भारती गोरे जैसे देश के करीब सौ लेखकों का विद्यानिवास मिश्र के साहित्य और जीवन पर केंद्रित अध्ययन-मनन शामिल है। उनके बारे में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि श्विद्यानिवास जी के लिए लोक का आकर्षण पार्थिव के प्रति समर्पण है।

5-मंटो के अनछुए पहलुओं पर पैनी नजर-अशोक भाटिया
डॉ. राजेन्द्र टोकी रचना, आलोचना और शोध के क्षेत्रों में निरंतर सक्रिय रहने वाले साहित्यकार हैं। गजघ्ल (दो), कहानी (दो), कविता (एक), आलोचना (चार) पुस्तकें उनकी सृजन-गाथा कहती हैं। मीर, इकबाल, दाग और मोमिन के जीवन और चुनी हुई शायरी की उनकी पुस्तकें और बदरीनारायण चैधरी प्रेमघन व श्रद्धाराम फिल्लौरी की रचनावाली का संपादन इनकी साहित्यिक निष्ठा के जीवंत प्रमाण हैं। श्मंटो रू नए पहलू्य इनकी पैंतीसवी पुस्तक है।
श्टोबा टेक सिंह्य, श्काली सलवार्य, श्खोल दो्य, श्ठंडा गोश्त्य जैसी सुप्रसिद्ध कहानियों के लेखक मंटो अत्यंत लोकप्रिय, उतने ही उपेक्षित हैं। उनकी 281 कहानियों और सौ से अधिक रेडियो नाटकों पर कोई गंभीर काम नहीं हुआ। इसी पीड़ा से गुजरते हुए डॉ. टोकी ने यह पुस्तक लिखी है।
पहले अध्याय में मंटो के खतों के जरिए उनके कोमल, संवेदनशील और भावुक रूप को उभारा गया है। श्मुसव्विर्य के संपादक पद से हटाए जाने से लेकर, आर्थिक तंगी, पाकिस्तान जाना व दंगों का प्रभाव ग्रहण करने आदि जरूरी प्रसंगों की इस संदर्भ में चर्चा की गई है।
दूसरा अध्याय श्रेडियो नाटक और मंटो्य हमारे सामने मंटो की रचनाधर्मिता का नया अध्याय खोलता है। मंटो के अनेक रेडियो फीचर, ड्रामा व प्रहसनों की चर्चा कर डॉ. टोकी बताते हैं कि मंटो के नाटक एक बनी-बनाई लकीर पर नहीं चलते।
तीसरे अध्याय श्अपने खतों में मंटो्य में मंटों के खतों के कुछ अंशों के माध्यम से उसकी ईमानदारी, स्पष्टवादिता, अच्छी रचना के प्रशंसक, परोपकारी वृत्ति को उभारा है।
इसके बाद श्मंटो रू मुझे भी कुछ कहना है्य नाम से डॉ. टोकी की छह टिप्पणियां हैं। इनमें मंटों की पुस्तकों के संस्करणों में अंतर, पाठांतर की समस्या, अनुवादकों की कोताही, मंटो के नाम पर हवाई किले बनाने वाले आलोचकों व जीवनीकारों के कारनामों के साथ ही अश्लीलता के नाम पर मंटों को भुनाने वाले प्रकाशकों की भी अनेक प्रमाणों के साथ खबर ली गई है।
मंटो की कहानियां घोर उपेक्षा की शिकार रही हैं। डॉ. टोकी ने अथक श्रम करके मंटो की कुल 281 कहानियों की सूची दी है, जबकि अब तक उनकी चार-पांच कहानियों के आधार पर ही उनके कहानीकार की छवि हम ढोए जा रहे हैं। अभी इन कहानियों के काल-क्रम पर काम करना शेष है। लेखक ने इन कहानियों के पांच स्रोतों की मत-भिन्नता को भी स्पष्ट किया है।
अंत में मंटो द्वारा अपने समकालीन, विख्यात रूसी कहानीकार गोर्की पर लिखे लंबे लेख का डॉ. टोकी ने अनुवाद कर प्रस्तुत किया है। यह लेख गोर्की के व्यापक अध्ययन और गहन विश्लेषण क्षमता का परिचायक है। इसका एक वाक्य देखेंकृश्गोर्की का स्वर, चेखोव की शिष्टता, कोमल और मंझी हुई आवाज नहीं, न वो नैतिक शिक्षक तालस्ताय का दुर्बल उपदेशात्मक स्वर हैज् वो चिंघाड़ते हुए शेर की एक गर्जन है।्य
कुल मिलाकर यह पुस्तक डॉ. राजेंद्र टोकी की शोध-वृत्ति की सर्चलाइट और लगन का परिणाम है। मंटो को जानने के लिए इस पुस्तक से गुजरना अनिवार्य है।

6-नाटकों में खुलती खिड़की-रतन चंद श्रत्नेश्य
जरूरी नहीं है कि लिखे हुए नाटकों का मंचन हो ही। अतएव लेखन के पठनीय होने में ही उसकी सार्थकता है। विगत चार दशकों से गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी में मौलिक लेखन करने वाली वर्षा दास का नाट्य-संकलन श्खिड़की खोल दो्य इस दृष्टि से खरा उतरता है। संकलन में कुल चार नाटक हैं और ये सभी आम आदमी के जीवन से जुड़कर स्पष्ट संदेश देते दिखते हैं।
पहला नाटक श्नहीं, कभी नहीं्य जहां नारी-स्वतंत्रता का पक्ष लेता है, वहीं परोक्ष रूप से नारी दुर्बलता और शोषण के संदेह को भी उद्घाटित करता है। भले ही लेखिका ने इसके माध्यम से नारी-स्वतंत्रता का पक्ष जितनी दृढ़ता से लिया हो, घटनाक्रम में उसकी बेबसी की झलक को वे रोक नहीं पायी है।
दूसरा नाटक श्एक सपना्य पांच दृश्यों में विभाजित है जिसमें दिल्ली से कोलकाता अपने रिश्तेदारों के पास आए मोहन और मीरा यहां से एक सपना लेकर लौटते हैं। यह अभिजात्य परिवार झुग्गीवासियों के जीवन में सुधार लाने को एक सामाजिक कर्तव्य के रूप में देखता है। कोलकाता में अपनी बहन सोनल को एक बस्ती में ऐसा करता देख मीरा भी अपने पति मोहन के साथ दिल्ली लौटकर गुलाबो की बस्ती को बदलने का सपना देखने लगती है। इसमें कहीं न कहीं झुग्गी-बस्ती में सोनल का मान-सम्मान देख मीरा के भी सपनों के पंख लगने का संकेत है।
तीसरा नाटक श्मैं कौन हूं्य चोरी के लिए निकले दो चोरों का आम व्यक्ति के जीवन में आए दिनों पैदा होने वाली परिस्थितियों से दो-चार होना है जबकि श्खिड़की खोल दो्य भी नारी-स्वतंत्रता को खूबसूरती से व्याख्यायित करती है। अठारह साल की एक लड़की विवाह न कर आगे पढने और अपने जीवन में आगे बढने को यह नाटक रेखांकित करता है। जो पिता अपनी इच्छाओं को उस पर थोपने को आतुर है, लड़की स्कूल के वार्षिकोत्सव में मंचित अपने खुद के लिखे नाटक और अभिनय से उनका हृदय-परिवर्तन कर देती है। नाटक का आरंभ घर की खिड़की को बंद करने के पिता के जबरन आदेश से होता है क्योंकि बाहर से बरखा की बौछारें अंदर आने का उसे डर है जबकि अंत में लड़की पिता की अनुमति पाकर खिड़की खोल देती है ताकि शीतल-शुद्ध हवा को अपने अंदर समा सके। गीत-संगीत का समावेश लिए ये नाटक जिज्ञासा भाव बनाए रखने के साथ एक नई खिड़की खुलने का संकेत देते हैं।

7-तंग नजरिये का विरोध-गोविन्द शर्मा
समाज दिन-ब-दिन पुरुषवादी होता जा रहा है। किसी महिला के साथ कोई अन्याय हो जाए और उससे कोई राजनीतिक लाभ मिलता दिखे तो महिला के पक्ष में भयंकर आंदोलन खड़ा कर देंगे, वरना चुप हो जायेंगे और महिला को भी चुप रहने को कहेंगे। यदि महिला बोलेगी तो उसे दोषी ठहराएंगे। न केवल महिलाएं, बल्कि जिस किसी का नाम महिलाओं जैसा होगा, उसके साथ भी ऐसा ही व्यवहार करेंगे। श्राजनीत्यि को ही लो। पुरुष होते खुद भ्रष्ट हैं, पर आरोप लगता है श्राजनीत्यि पर कि यह भ्रष्ट हो गई है।
मशीन को कोई नहीं कहता कि खराब हो गया। कहेंगे-खराब हो गई। दोष उसे बिगाडने वाले पुरुष का नहीं, मशाीन का ही होगा। मशीन महिला जेंडर जो ठहरी। यह सब इसलिये दिख रहा है कि आजकल एक मशीन के चरित्र पर हार पर हार वालों की ओर से अंगुलियां उठी हुई हैं। क्यों? क्योंकि वह भी स्त्रीवाचक नाम वाली मशीन है। ई.वी.एम. कहते हैं इसे। इसके साथ छेड़छाड़ हुई है। अब मांग यह नहीं है कि छेड़छाड़ करने वालों की पकड़-धकड़ की जाए। मांग है कि इस मशीन को दफा किया जाए। बाप अपनी इस बेटी को वापस अपने घर बुला ले। इसके स्थान पर बेटा यानी मतपत्र भेज दे। यदि इस मशीन को ईवीएम की बजाय विद्युत चालित मतदान यंत्र कहा जाता तो शायद पुरुषवादी दल अपनी इतनी अंगुलियां न उठाते। इसका मतलब यह नहीं कि पुरुष चरित्र पर अंगुली नहीं उठतीं।
पिछली सदी में एक चुनाव में बुरी तरह हारे लोगों ने कहा था कि मतपत्र पर उडने वाली स्याही का उपयोग हुआ है। किसी भी पार्टी के प्रत्याशी के सामने मुहर लगाओ, स्याही उड़कर जीती पार्टी के प्रत्याशी के नाम के सामने उभर आती रही है, इसलिये मुहर भी वहां दिखती है। वैसे यहां पर भी श्स्याही्य और श्मुहर्य के चरित्र पर ही संदेह किया गया। यह आरोप पर्व ज्यादा दिन नहीं चला क्योंकि मतपत्र को पुरुष मान लिया गया है। उसे फिर से बुलाया जा रहा है।
आश्चर्य इस बात का है कि इस लैंगिक भेदभाव के खिलाफ, इस पुरुष मानसिकता के खिलाफ न तो नारीवादी साहित्यिक आवाजें आईं और न राजनीतिक। हारी हुई (नारी यानी पार्टी) भी नहीं बोली। शायद इसलिये कि जीती हुई नारियों को क्या मिल गया? वे खुद अपनी उपेक्षा की शिकायत करें या स्त्रीवाचक शब्दों से होने वाले भेदभाव की?
वैसे भीतर की आवाजें यह बताई जा रही हैं कि हमें क्या है। ईवीएम की जगह मतपत्र आ गया तो कलाकार स्याही ले आयेंगे, स्याही कहीं दूर उड़ गई तो मतपेटी उठा लेंगे।

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