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टुकड़ों में बटा शिक्षक समाज, कई संघों की अगुवाई,शिक्षकों ने कोरोना में अपनी जान गवाई कहां हो सुनवाई

लखनऊ। रेलवे के बाद सबसे ज्यादा कर्मचारियों की संख्या वाला बेसिक शिक्षा विभाग उत्तर प्रदेश में चुनाव की ड्यूटी मतदान से लेकर मतगणना तक हजारों शिक्षक कुरौना की चपेट में आ गए। शिक्षक ना चाहते हुए भी कोरोना प्रोटोकॉल का पालन ना होने के कारण भीड़ और गांव के लोगों के संपर्क में आने पर कोरोना महामारी के शिकार हो गए।

संक्रमण की चपेट में आए सैकड़ों साथियों को हमने खोया है। यदि चुनाव की ड्यूटी में भेजे गए सभी शिक्षकों का ससमय टीकाकरण करवा दिया गया होता तो शायद यह आंकड़े कम होते, सरकारी तंत्र द्वारा ऐसा कुछ नहीं कराया गया, क्योंकि उनके लिए शिक्षकों के जान की कोई कीमत नहीं थी।
अगर शिक्षकों को वरीयता के आधार पर टीका,अस्पताल ,ऑक्सीजन और दवाओं की सुविधा दे दी जाती तो भी शायद यह आंकड़े कम होते, पर आप सोच कर परेशान मत हो भले ही आपने अपने हजारों साथियों को खोया हो सरकार तो सिर्फ 3 शिक्षकों की मृत्यु कोरोना से हुईं है यह मान रही है। और आप अपने साथियों को खोने काबुल तो उठा ही रहे हैं इस प्रकार के झूठे आंकड़ों के खेल से भी परेशान होकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
विभिन्न संगठनों ने समय-समय पर प्राप्त सूची को प्रशासन के पास भेजा और बताया कि चुनाव ड्यूटी के दौरान कितने शिक्षक संक्रमित हुए जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई।
चुनाव आयोग का बीमा, कार्मिक के घर से निकलकर चुनाव ड्यूटी पर जाने व ड्यूटी करके घर तक पहुंचने तक ही होता है। संगठन के दबाव में अधिकारियों ने केवल इतना कर दिया था कि उस बीमा के कवर में कोविड से हुई मौत को भी जोड़ दिया। परंतु मुख्य बात यह है कि करोना जैसी महामारी के अपने नियम हैं ………कोरोना महामारी के गाइडलाइन आने के बाद सभी को पता है कि संक्रमण की अवधि लगभग 28 दिन होती है यही कारण है कि कर्मचारियों को छुट्टी भी 28 दिन की दी गई। तो फिर संक्रमण चुनाव के दौरान प्राप्त करने वाले शिक्षक व कर्मचारी यदि इन 28 दिनों में किसी भी कारण से मौत के आगोश में जाते हैं तो उन्हें कोबिड की मृत्यु माना जाए यह मानने में परेशानी क्यों हो रही है।
चुनाव आयोग के बीमा नियम को माना जाए तो घर से ड्यूटी स्थल तक और ड्यूटी स्थल से घर तक यदि किसी कार्मिक की मृत्यु होती है तो उसे बीमा का लाभ दिया जाएगा अब इन्हें कौन समझाए कि कोरोना की चपेट में आए व्यक्ति और हार्ट फेल होने से हुई मृत्यु में जमीन आसमान का अंतर है। अतः बीमा का नियम की महामारी की शर्तों के अनुसार ही होने चाहिए थे। सबसे बड़ी बात है इतना बड़ा शासन और प्रशासन तंत्र तो फिर प्रभावित शिक्षकों की ड्यूटी लगाई ही क्यों गई??? क्या यह मानवीय शोषण का उदाहरण है।??
सरकार इस जवाबदेही से बचना चाहती है कि शिक्षक चुनाव के दौरान संक्रमित हुआ, जिस कारण उसकी मृत्यु हुई। क्योंकि ऐसी स्थिति में उसे यह जवाब भी देना होगा कि चुनाव के दौरान कोविड महामारी के प्रोटोकॉल का पालन क्यों नहीं हुआ??
प्रश्न का जवाब दे कौन ? कि कर्मचारी और शिक्षक को संक्रमित मतदाता, अभिकर्ता, प्रत्याशी आदि को चुनाव में प्रतिभाग क्यों करने दिया गया। इन मेरी कर्मचारी और शिक्षकों की मृत्यु का दोषी कौन है?
शिक्षकों का क्या दोष जो ना चाहते हुए भी संक्रमण के शिकार हुए, जिनके परिवार ने अपने पिता को खोया ,जिन बच्चों ने अपनी माताओं को खोया और जिस एक कमाने वाले परिवार ने अपने मुखिया को खोया, और सबसे हास्यास्पद बात यह कि सरकार इन्हें कोरोना महामारी से संक्रमित होकर मृत मानने को भी तैयार नहीं। क्या शुतुरमुर्ग की तरह सरकारी तंत्र को रेत में सर छुपा लेने से आंकड़े मैनिपुलेट हो जाएंगे जिन परिवारों ने अपनों को खोया है क्या वह वापस कर दिए जाएंगे??
विभिन्न प्रकार के संगठनों के होने के बावजूद आज इस बात का प्रतिकार करने वाला कोई नहीं कि यदि मात्र 3 शिक्षक चुनाव के बीमा सूची में आते हैं तो अन्य शिक्षक बीमा की कौन सी सूची में आते हैं। क्या राज्य सरकार अपने बेसिक के कर्मचारियों व अन्य कर्मचारियों के जीवन की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार नहीं थी।
क्यों बिखरे हुए संगठन एकजुट होकर उन मृत आत्माओं के हक और अधिकार उनके परिवारों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए नहीं लड़ रहे।
सरकार की लापरवाही व चुनाव तंत्र की लापरवाही के कारण ही मासूम शिक्षकों को कोरोना महामारी का संक्रमण चुनाव के दौरान प्राप्त हुआ, रही सही कसर मतगणना से पूरी हो गई,चिकित्सा सुविधाओं की बात हो यह मृत्यु के आंकड़े देने की बात क्या आंकड़ों की अनदेखी कर छुपाकर सच को छुपाया जा सकता है??? निश्चित रूप से नहीं संवेदना और भावनाओं को सरकार को समझना चाहिए।
चुनाव ड्यूटी से लेकर मतगणना और उसके कुछ दिनों बाद तक जो भी शिक्षक संक्रमण से मरे हैं क्या उनका डेथ सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा और यदि मिलेगा तो उन्हें किस श्रेणी की मृत्यु में रखा जाएगा। इसलिए सरकार को अपनी आंखें खोलनी चाहिए और आंकड़ों के खेल की चालबाजी से मृत कर्मचारी और शिक्षकों को मुक्त रखना चाहिए ।सच्चाई से स्वीकार होना चाहिए कि हमने शिक्षकों को खोया है। मृत परिवार के सदस्यों को कुछ न कुछ आर्थिक सहायता अवश्य प्रदान करनी चाहिए। क्योंकि किसी किसी परिवार में एक ही काम आने वाला था और उनके बच्चे भी इतने छोटे हैं कि उन परिवारों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है।
बेसिक के शिक्षकों कि कर्मचारी बीमा के नाम पर तनख्वाह से ही ₹87 रुपए हर माह कट जाते हैं। लगभग आठ लाख शिक्षकों का यह पैसा कहां जा रहा है और इस प्रकार के बीमा का लाभ शिक्षकों को कब और कौन सी कंपनी दे रही है इसका भी संज्ञान लेने वाला कोई संगठन सामने नहीं आया, और शिक्षकों की गाढ़ी कमाई का पैसा अनजाने और अंधे कुएं में जाने को विवश।
वाकई चंदे की राजनीति में फंसे शिक्षक संगठन सिर्फ निरीक्षकों से अपना वार्षिक चंदा और हर जिले में जिला अध्यक्ष बनाने में ही व्यस्त हैं। ज्यादा जोगी मठ उजाड़ की कहावत तो सभी ने सुनी ही होगी। और इन सब की भेंट चल रहा है मेरी शिक्षकों का बिलखता परिवार।
3 शिक्षकों की मृत्यु के आंकड़ों के खेल पर ही संगठन शांत रहते हैं तो यह हास्यास्पद है और सभी शिक्षकों के हित में बात करने के नाम पर शिक्षकों को ठगने वाले इन संगठनों को अब अपनी राजनीति से विराम देना चाहिए।

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