याद आता है वो अपना सुहाना बचपन जब गांव के चौबारे हो या घर के आंगन में लगा नीम का पेड़ सावन का महीना आते ही झूले दिखाई देने लगते थे गांव-मोहल्लों से कजरी के गीत कानों में गूंजने लगते थे नवविवाहित महिलाएं सावन शुरू होते ही अपने हाथों में मेंहदी रचाकर पीहर आ जाती थीं मोहल्लों में एक पेड़ ऐसा चुना जाता था जहां दिन में मोहल्ले के सभी बच्चे पेंगे मारते थे और रात में मोहल्ले भर की बहन बेटियां और महिलाएं एकत्रित होकर सावन के गीत गाते हुए झूला झूलती और श्रावणी गीतों का आनन्द लेती हुई एक दूसरे से हँसी ठिठौली करती नजर आती थीं। लेकिन धीरे-धीरे समय परिवर्तन के साथ ही सावन के झूले शहरी संस्कृति की भेंट चढ़ते गए, अब तो कजरी और मल्हार गाती महिलाएं भी नजर नहीं आती हैं। बचपन में श्रावण मास की बारिश में भीगते हुए नीम, पाकड़ और कहीं कहीं बागों में आम के पेड़ों में भी झूला झूलना, बारिश के बहते पानी में कागज की नाव बना कर चलाना जैसी खुशियां अब नई नई तकनीकों के आगे मानो कहीं खो सी गई हैं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के निर्माण से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त सा होता जा रहा है। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब होते जा रहे हैं। प्रकृति के संग जीने की परम्परा थमती जा रही है। झूला झूलने की परम्परा को जैसे ग्रहण सा लग गया है। अब तो लोग मंहगाई के झूले झूल रहे हैं। बढ़ते भौतिकता वादी परिदृश्य ने एक दूसरे के प्रति लगाव भी खत्म कर दिया है। सावन की परम्परा का निर्वाह अब घर की छत लाॅन या आंगन में ही रेडीमेड फ्रेम वाले झूले, लोहे और बांस के झूलों ने ले लिया है। आधुनिकीकरण का आलम यह है कि लोग तीज के दिन गुड़िया पीटने के बजाय माॅल जाना पसन्द करते हैं, महिलाएं कम्यूनिटी सेंटरों में जाकर तीज पर्व मनाने लगी हैं जबकि पूर्व में संयुक्त परिवार हुआ करता था समूचे परिवार में बुजुर्गों की छत्रछाया और उनके सानिध्य में सभी पारिवारिक सदस्य एक दूसरे से जुड़े रहते थे लेकिन अब एकल होते परिवार और गांवों में फैल रही वैमनस्यता ने तो आपसी स्नेह को समाप्त कर झूला झूलने के रिवाज को ही खत्म कर दिया है। अब तो न पहले जैसे बाग बगीचे रहे न मोर पपीहे और कोयल की मधुर बोली ही सुनने को मिलती है। वर्तमान समय में अब झूले की परम्परा लुप्त होती जा रही है शायद इसीलिए वर्षा ऋतु में सावन की महिमा धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से तो बढ़ जाती है लेकिन प्रकृति के संग जीने की परम्परा लुप्त होती जा रही है । होती जा रही है प्रकृति के संग झूला झूलने की परम्परा—-