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गुजरते दौर का दर्पण है “समय”

 रहिमन चुप ह्वे बैठिए, देखि दिनन के फेर ।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहे देर।।

       उक्त के अनुसार परिवर्तनशील समय में अच्छे बुरे दोनों प्रकार के दिन जीवन में आते हैं। जब समय अनुकूल होता है तो कार्य सरलता से सम्पन्न हो जाता है। इसी भाव को अन्यत्र इस प्रकार व्यक्त किया गया है –
*का रहीम नर को बड़ो, समय बड़ा बलवान*
अर्थात समय बहुत शक्तिशाली है। इसे राजा को फकीर और फकीर को राजा बनाने में जरा भी समय नहीं लगता ।कई बार यह व्यक्ति के साथ इतना क्रूर मजाक कर बैठता है कि वह असमय काल के गाल में समा जाता है। और यह निष्ठुर, निर्दयी बन कर देखता रहता है। राम का राज्याभिषेक होने जा रहा था, समय ने ऐसा खेल खेला कि उनका वनवास हो गया। राजा दशरथ का प्राणांत तथा जो सीता महारानी बनने वाली थी, उनका हरण, अग्निपरीक्षा तत्पश्चात सदैव के लिए देश निकाला हो गया। समय बेरहम मौन रहा। इसीलिए इसे काल- विदूषक की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।
समय अनादि और अनंत होता है। यह सर्वत्र व्याप्त है। दार्शनिक विचारधारा कहती है, सृष्टि निर्माण के पूर्व भी इसकी सत्ता विद्यमान थी और प्रलय के उपरांत भी बनी रहेगी। सृष्टि में सब कुछ नष्ट होने के बाद भी यदि कुछ बचा रहता है तो वह समय है। बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता। यह न तो किसी के लिए रुकता है और न किसी का इंतजार करता है। यह हर क्षण, मिनट, घंटे, दिन-रात, महीने, व ऋतुओं के रूप में निरंतर अज्ञात दिशा में जाकर विलीन होता रहता है । इसका न तो कोई रूप होता है, न रंग। इसकी अजस्र धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। और फिर शून्य में जाकर विलीन हो जाती है। समय को “काल” भी कहते हैं। वर्तमान दौर कोरोना संक्रमण काल से प्रत्यक्ष हो रहा है। दिसंबर 2019 से इस वायरस की भयावहता का काल आज भी भारत सहित संपूर्ण विश्व को आतंकित किए है। इसके संक्रमण से लाखों व्यक्तियों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इसी के संक्रमण का दुष्प्रभाव है कि ब्लैक फंगस, हवाइट फंगस तथा यलो फंगस जैसी महामारी को पैर पसारने के लिए अनुकूल वातावरण मिला।
कोरोना की पहली लहर से लोग उबर भी नहीं पाए थे कि दूसरी लहर मौत बनकर टूट पड़ी। संक्रमितों के लिए अस्पतालों में बेड, जीवन रक्षक दवाओं, ऑक्सीजन की कमी तथा मरीजों को समय पर चिकित्सा सेवा न मिल पाने से मृत्यु का तांडव हुआ। शायद ही ऐसा कोई भाग्यशाली परिवार बचा होगा जिसने मौत के इस तांडव में अपने सगे संबंधी या प्रिय जन को न खोया होगा। मौत का काल बनकर आए इस काल के प्रभाव से कोई अछूता न रह सका। लॉक डाउन हो जाने से उद्योग धंधे बंद हो गए, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो गए । अभी तक जहां गांव से शहरों के लिए लोग पलायन करते थे वह रोजगार विहीनता के कारण शहरों से गांव में आने के लिए विवश हुए। यह पलायन आरामदायक न रहा । यातायात के साधनों के अभाव में बहुत से मजदूर भूख, प्यास से व्याकुल होकर परिवार सहित पैदल ही गंतव्य की ओर निकल पड़े। जिनमें से बहुतों ने मार्ग में ही दम तोड़ दिया। मजदूरों के पैरों में पड़े छालों से समय के पन्नों पर विद्रूप कहानियां लिख गईं। महीनों से स्कूल कालेजों के बंद होने से बच्चों की पढ़ाई व युवाओं के लिए नौकरियों का संकट उत्पन्न हो गया है। शिक्षकों द्वारा ऑनलाइन उपलब्ध कराई जा रही शिक्षा, प्राप्त करने में भी चुनौतियां कम नहीं है। सुविधा विहीन ग्रामीण अंचलों में मोबाइल नेटवर्क समस्या, डाटा पर व्यय अभिभावकों पर अतिरिक्त भार डाल रहा है। समय पर परीक्षा न हो सकने से विद्यार्थियों को भविष्य अंधकार में दिख रहा है ।
लंबे समय से लगातार घरों में रहने के कारण बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं सभी तनाव की स्थिति से गुजर रहे हैं। जिससे उनमें चिड़चिड़ापन, व्यग्रता और अनिद्रा के लक्षण आ रहे हैं। घरों में तनाव बढ़ जाने के कारण घरेलू हिंसा में वृद्धि हो रही है। कोविड -19 की दूसरी लहर, कहर बनकर आई है। जिससे निपटने में व्यवस्था की धज्जियां उड़ गई। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच गया। जीवन रक्षक दवाओं व आवश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी व्यापक स्तर पर हुई। बहुत से लोगों ने आपदा को कमाई का जरिया समझा। निजी अस्पताल मरीजों को इलाज के नाम पर लूटने में पीछे नहीं रहे। भयंकर त्रासदी के इस काल में लोगों के नैतिक मूल्यों का पतन पराकाष्ठा पर पहुंच गया। अधिकतर आपदा के अवसर को भुनाने में संलग्न रहे। वहीं समाज का कलुषित रूप भी उजागर हुआ । लोगों ने शारीरिक दूरी के साथ-साथ मानसिक दूरी भी बढ़ा ली। कोरोना संक्रमितों के साथ लोग अछूतों जैसा व्यवहार करने लगे। बहुतों ने संक्रमितों की मृत्यु हो जाने पर उनकाे सम्मान जनक अंतिम विदाई देना भी आवश्यक नहीं समझा और बिना अंतिम संस्कार या शवदाह के उन्हें नदियों में फेंक दिया। इन कृत्यों से निश्चित ही मानवता शर्मसार हुई। इस कोविड कालखण्ड में जहां समाज और व्यवस्था का स्याह चेहरा सामने आया वहीं इसका उजला पक्ष भी अनेक अत्र दृष्टिगोचर हुआ। पीड़ितों की सहायता भी दिल खोलकर की गई कहते हैं-
*जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी*
आपदा की इस अवस्था को लोगों ने अपनी स्थिति- परिस्थिति के अनुसार समझा । इन विषम परिस्थितियों में सकारात्मकता की तरफ भी कदम बढ़ा। छिपी रचनात्मक प्रतिभा सामने आई रचनात्मक गतिविधियों में बढ़ चढ़कर भाग लिया गया। समयाभाव के कारण जो अपनी रुचियां पूरी नहीं कर सके थे, उन्होंने अवकाश का सदुपयोग करके अपने सपनों को साकार किया। यूट्यूब पर ऐसी कलाकृतियों का खूब प्रदर्शन हुआ । बच्चों के साथ खेल खेला। परिवारी जनों के साथ गपशप की। जिससे भावनात्मक सुदृढ़ता आई। रिश्ते मजबूत हुए । बहुत सी ऐसी संस्थाओं का निर्माण हुआ जिन्होंने बेरोजगारों को रोजगार के अवसर दिए। घर की चहारदीवारी के भीतर विवशता पूर्ण निकम्मे पन के दौर में मन के भावों को कागज पर उकेरने का कार्य बखूबी हुआ। भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों पर जमकर लेखनी चली तथा सोशल मीडिया के माध्यम से उसे दूर- दूर तक प्रसारित किया गया। जिससे गौरवशाली सांस्कृतिक इतिहास का सृजन हुआ और इस विषम काल में आत्म निर्माण व आत्म विकास को भी पर्याप्त अवसर मिला। वैज्ञानिक शोध में तीव्रता आई कोविड वैक्सीन की खोज 10 माह के अल्प समय में ही कर ली गई। इतिहास के पन्नों पर दृष्टि डालें तो पाते हैं, औपनिवेशिक काल में जब देश को अंग्रेजों ने गुलाम बना रखा था और विभिन्न प्रकार के निर्मम हथकंडे अपनाकर देश वासियों का बर्बरता पूर्वक शोषण कर रहे थे तथा इनके विरुद्ध आवाज उठाने पर उन्हें कठोर कारावास में डाल दिया जाता था तब भी वह हार नहीं मानते थे और कारागार के अंदर से अपनी लेखनी को आवाज बना कर जन-जागरण कर उन्हें एकजुट करके विदेशी सत्ता के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का हौसला देते रहे।
कारावास काल आसान नहीं होता था । कभी-कभी ब्रिटिश सरकार द्वारा कागज व कलम भी उपलब्ध नहीं कराया जाता था। ऐसे में कोयले का टुकड़ा कलम तथा कारागार की दीवारें कागज बन कर उन्हें उनके मनोभावों की साक्षी बनती थीं। इस कड़ी में 1857 की क्रांति के नायक बहादुर शाह जफर द्वारा दीवार पर लिखी गई ग़ज़ल आज भी इस बात की प्रेरणा देती है ,यदि मन में संकल्प और इच्छाशक्ति हो तो जगह और साधन कोई मायने नहीं रखते।
लोकमान्य, लोकनायक की उपाधि से विभूषित बाल गंगाधर तिलक की छवि ब्रिटिश अधिकारियों में “भारतीय अशांति के पिता” के रूप में थी । जिन्होंने 1905 में ओजस्वी उदबोधन
” स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ,हम इसे लेकर रहेंगे”
का नारा देकर देश को दासता से मुक्त कराने हेतु ओज व देश प्रेम का संदेश दिया। जिससे घबराकर सरकार ने उन्हें वर्मा के मांडले कारावास भेज दिया। देश प्रेम से ओतप्रोत तिलक ने कारागार के अंदर ‘गीता रहस्य’ जैसे ग्रंथ की रचना करके जनमानस को कर्तव्यनिष्ठा का पाठ पढ़ाया। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम काल में अपने कारागार प्रवास में ‘माय एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ’ जैसे अद्वितीय ग्रंथ की रचना की और वहीं से दिए गए संदेशों व रचनात्मक कार्यों से देश को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए एकजुट किया। भगत सिंह ने कारावास प्रवास में ही ‘मैं नास्तिक क्यों हूंँ’ लेख लिखा। 1942-46 में कारागार में ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक की रचना की। 1977 में आपातकाल के दौर में जयप्रकाश नारायण ने चंडीगढ़ कारावास में जेल डायरी लिखी जिसमें राजनैतिक बंदियों की मनोदशाओं को बड़ी शिद्दत के साथ उकेरा गया है।
नजरबंदी हो, कारागार की ऊंची दीवारें या एकांतवास , व्यक्ति की मनोदशा पर गहरा प्रभाव डालता है। जो धैर्यवान इसको नियंत्रित करके समय के अनुकूल स्वयं को परिवर्तित कर लेता है वह विजेता बन सामने आता है और वही प्रतिकूल समय उसके अधीन हो जाता है। आज हम कठिनाई के दौर से गुजर रहे हैं। हमारी दिनचर्या अनियमित हो गई है । सोने जगने, खाने- पीने का समय बदल गया है । घर के अंदर सीमित हो गए हैं। ऐसी स्थिति में जिस घर में कोई अस्वस्थ है, उसके लिए और कठिन समय है। ऐसे में तनाव या अवसाद स्वाभाविक है। परंतु यदि हम डार्विन के विकास सिद्धांत ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ अर्थात यदि हम समय या प्रकृति के साथ समायोजन स्थापित कर लेते हैं तो जीवन के विकास क्रम में आगे बढ़ते जाते हैं।
परिवर्तन शीलता समय की प्रकृति है और उसका प्रबंधन करना सफलता का अमोघ मंत्र है। यह अजस्र अनु दानों से परिपूर्ण है। इसके प्रति सजग, सचेत रहने वाले इसका सदुपयोग कर निरंतर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते रहते हैं। अथर्ववेद में कहा गया है- ‘हमारे दाहिने हाथ में कर्म है और बाएं हाथ में विजय’ अर्थात जो कर्म हम करते हैं वह प्रत्यावर्तित होकर फल के रूप में हमारे सामने आते हैं। कोरोना काल में इसके संक्रमण से बचने के लिए अनावश्यक बाहर न निकलने, मास्क लगाने व स्वच्छता पर ध्यान देने के लिए संदेश प्रसारित किए जा रहे हैं। जो सजग रहे ,वह संक्रमण से बचे रहे और अपनी कुशलता व क्षमता का प्रयोग किया । साथ ही नकारात्मकता से बचे रह कर अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दुरुस्त रखा। इस संदर्भ में प्रसिद्ध समय प्रबंधन कर्ता रॉबर्ट रोसेक का कथन है- ” समय तो अपनी गति के अनुसार अनुरूप निरपेक्ष भाव से चलता रहता है इसकी गति ना तो अधिक है और ना कम 24 घंटे की इसकी अवधि भी निश्चित है सभी के लिए यही समय है और इसी समय को साधन के रूप में प्रयुक्त करना होता है” कोरोना की प्रथम लहर से सचेत होकर यदि दूसरी लहर में उचित व्यवस्था कर ली गई होती तो निश्चित ही वृहद स्तर पर होने वाली मौतों की संख्या में कमी लाई जा सकती थी।
अस्तु समय की निरंतर प्रवाह शील धारा में हम सभी बह रहे हैं। यह न तो किसी के लिए अच्छा है और न बुरा यह तो सिर्फ परिस्थितियों का साक्षी मात्र है। इसका आकलन हम अपनी मनोदशा के अनुसार करते हैं। अतः समय के सदुपयोग में ही जीवन की सार्थकता है।

डॉ कामिनी वर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर
काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ज्ञानपुर भदोही उ. प्र.

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