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सवर्ण आरक्षण

विक्रम सिंघल
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी छवि को रहस्यमय बनाये रखने में बड़ी मेहनत की है। इसके लिए वे अक्सर ऐसे निर्णय और घोषणा ले कर आते हैं जिसकी कल्पना तो लोगों में होती है पर उसकी आगाही का कोई अंदाजा नहीं होता। नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव, जैसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं जहां लोगों की कल्पना पर ऐसा वार होता है कि विपक्षी तर्क व दलीलों के लिए कोई ग्रहण क्षमता लोगों में नहीं रह जाती। ऐसी ही एक घोषणा है सवर्ण गरीबों के लिए 50 प्रतिशत साधारण आरक्षण के ऊपर 10 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण की घोषणा। क्योंकि इन घोषणाओं की आकस्मिकता में इन तक पहुंचने की प्रक्रिया कहीं दिखाई नहीं देती या हमें बताई नहीं जाती। हम कभी नहीं जान पाए कि नोटबंदी की सिफारिश कहां से हुई और उस पर किन लोगों से मशविरा हुआ या उसकी तैयारी में कौन लोग शामिल थे। ये घोषणाएं प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को हम जैसे आम लोगों के लिए नहीं, बल्कि मंत्री परिषद, संसद, संवैधानिक संस्थाएं और यहां तक कि उनकी अपनी पार्टी के लिए भी अज्ञेय बना देते हैं और आम जनमानस विस्मित होकर उसे देखता है। इसी विषय में छुपा है उनके प्रति वह असीमित संभावनाओं का भ्रम जिसमें एक निराश, पीड़ित और उपेक्षित जनता अपने कल्पित अभ्युदय का संकेत देखती है। मुश्किल चुनावों से ठीक पहले आने वाली ये घोषणाएं हमें गौरिल्ला वार फेयर जैसी नीति प्रतीत होते हैं। फिर चाहे वो उत्तरप्रदेश विधानसभा हो या आगामी लोकसभा चुनाव। गोरक्षक दलों, असम में एनआरसी, ट्रिपल तलाक, सबरीमाला, कश्मीर में पीडीपी से समर्थन वापसी, बंगाल में रथ यात्रा, जैसी आंशिक सफलता वाले धु्रवीकरण की कोशिशों के बाद जब हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली हार तो आवश्यकता थी ऐसी ही किसी घोषणा की। धु्रवीकरण की ओर बढ़ते समाज में मूल प्रश्नों पर बहस करने का नैतिक साहस अब कम ही लोगों में बचा है और जो लोग ये बात कर रहे हैं उनकी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता या तो पहले से कम थी या फिर मीडिया ने उसे धूमिल कर दिया है। ऐसे में सारी बहस आर्थिक क्षेत्र में मंडी और राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के संकेत की ओर मोड़ने का विपक्ष विशेष कर राहुल गांधी के प्रयास को सफल होते देख, उन्हें विमर्श के कथानक का उनके हाथ से निकल जाने का आभास जान पड़ता है। ऐसे में विमर्श को वापस उन मुद्दों में कैसे स्थापित किया जाये जहां उनकी नींव मजबूत है। दूसरा मुद्दा है चुनावी अंक गणित 31प्रतिशत मतों से बहुमत लाने वाली सरकार जानती है कि उसे उन दलित मतों का नुकसान उठाना जो कि 2014 में उनके तरफ बह आये थे, यह करीब 4 प्रतिशत मतों का नुकसान हो सकता है और यदि मुस्लिम दलित गठजोड़ के साथ जाट और यादव को भी मिला ले तो नुकसान 6 प्रतिशत से ज्यादा अनुमानित है। ऐसे में 14 प्रतिशत सवर्ण वोट जो कि उनका मूल वोट है को बचाये रखना नितांत आवश्यक है। हाल के तीन हिंदी भाषी राज्यों में इस वोट विशेष कर ब्राह्मण वोट में सेंध के संकेत मिले हैं और यह बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। पर यहां ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों का अम्बार लग रहा है जिनका उत्तर है तो किसी के पास नहीं पर जिनकी अपेक्षा सिर्फप्रधानमंत्री से की जाएगी। पहला सवाल 10 प्रतिशत कीसंख्या से है, यदि कुल सवर्ण संख्या 14 प्रतिशत मान लिया जाए तो आर्थिक रूप से कमजोर होने के नियत आधारों पर लगभग 10प्रतिशत जनता ही उतरेगी। ऐसे में यह जनसंख्या के अनुपात में दिया गया आरक्षण होगा न कि सांकेतिक या प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने वाली। इससे होगा यह कि एससी एसटी के बाद अब गरीब सवर्ण भी जनसंख्या के बराबर आरक्षण पाने वाले श्रेणी में आ जायेंगे और केवल ओबीसी ही इससे वंचित रहेंगे। ओबीसी आरक्षण को 27 फीसद पर सीमित रखने के पीछे उच्चतम न्यायालय का कृत्रिम 50 प्रतिशत सीमा आड़े आई थी। इससे ओबीसी रोष का वातावरण बनेगा और जातीय जनगणना की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग और तेज हो जाएगी। दूसरा सवाल है कि गरीब सवर्णों की नौकरियों में वर्तमान हिस्सेदारी का कोई स्पष्ट आंकड़ा सामने नहीं है और अनुमानतरू वह 10 प्रतिशत से अधिक ही है। ऐसे में इस आरक्षण को कोई तार्किक वैधता नहीं मिल रही है।
तीसरा प्रश्न है कि यदि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन के साथ आर्थिक पिछड़ापन भी आरक्षण का आधार बन सकता है तो स्पष्ट एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर की मांग भी जायज प्रतीत होती है।
अगला सवाल है इसके मापदंडों पर, क्या एससी एसटी और सवर्णों में अलग-अलग क्रीमी लेयर तय होंगे, और इसे इनकम टैक्स या अन्य सामाजिक सुरक्षा हितग्राहियों के मापदंडों से अलग रखने पर बहुत से विसंगतिया पैदा होंगी। सबसे बड़ा सवाल है इसकी सार्थकता पर, जो कि सरकारी नौकरियों की संख्या में आ रही निरंतर कमी से है, की जब 24 लाख सरकारी पद रिक्त पड़े हों तो ऐसे में आरक्षण भी एक जुमला भर साबित होगा। पर सबसे बड़ा सवाल तो इसकी चुनावी रणनीति के रूप में असर का है। कृषि संकट से जूझ रहे किसानों में अधिकतर ओबीसी या दलित हैं, ऐसे में क्या उन्हें पूरी तरह से नाराज करना समझदारी होगा। जाट और गुज्जर आरक्षण अदालत में रुक गयीं और कांग्रेस को इसका कोई चुनावी लाभ भी नहीं मिला। यह घोषणा उत्तर प्रदेश को केंद्र में रख कर बनाई गई लगती है क्योंकि चुनावी दृष्टि से प्रासंगिक सवर्ण वोट सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही हैं, और वहां सपा बसपा गठबंधन ने परेशानी खड़ी कर दी है। ऐसे शेष राज्यों में बड़ा नुकसान का सामना हो सकता है।

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