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विचार मंथन 18-04-2017

महंगाई के मुताबिक बढ़े सैलरी
हाल ही में नौकरीपेशा लोगों के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि 70 फीसदी लोग अपनी आमदनी को लेकर खासे असंतुष्ट हैं। इन लोगों का मानना है कि उनकी सैलरी बाजार मानकों के अनुरूप नहीं है। एक छोटा सा तबका अलग सोच वाला भी है। करीब 30 फीसदी लोग यह तो मानते हैं कि बाजार मानकों के मुताबिक उनका वेतन ठीकठाक है, लेकिन वे भी संतुष्ट नहीं हैं। वजह है जिम्मेदारियों का बोझ। उनका मानना है कि उन पर जितना दायित्व डाल दिया गया है उसके मद्देनजर उनका वेतन कम है। यह बात सही है कि अपनी सैलरी से संतुष्ट व्यक्ति खोजना आज की दुनिया में लगभग नामुमकिन ही है। मगर किसी भी इंडस्ट्री में अगर वर्कफोर्स अपने काम की परिस्थितियों से या वेतन से एक हद से ज्यादा असंतुष्ट है तो यह उस इंडस्ट्री के लिए चिंता की बात हो जाती है। इस लिहाज से देखें तो दूसरी श्रेणी के असंतोष को, यानी उन लोगों को जो बाजार के मानकों से ज्यादा, पर अपने पैमानों पर कम कमाते हैं, थोड़ी देर के लिए टाला जा सकता है। मगर जो पहली श्रेणी है, यानी उन लोगों की जिनका वेतन बाजार के मानकों पर भी कम बैठता है, उनकी बात तो करनी ही पड़ेगी।
इसमें दो राय नहीं कि पिछले कुछ समय में सैलरी में बढ़ोतरी की भी खबरें आती रही हैं। सरकारी सेवकों को तो सातवें वेतन आयोग के चलते अच्छी खासी बढ़ोतरी मिली ही, इस दबाव में प्राइवेट सेक्टर के भी कई क्षेत्रों में वेतन बढ़ाया गया। बावजूद इसके, अगर 70 फीसदी कर्मचारियों को लगता है कि उनका वेतन बाजार के मानकों के हिसाब से कम है तो इसकी एक बड़ी वजह है आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी। महंगाई दर के आंकड़े जो भी कहते हों, व्यावहारिक अनुभव यह है कि सामान्य इस्तेमाल की चीजों की कीमतें बढ़ी हैं। एक और बात यह है कि इस बढ़ोतरी में कई तरह की भिन्नताएं हैं। यानी एक वस्तु की कीमत एक जगह कुछ तो दूसरी जगह कुछ और है। बहरहाल, कर्मचारियों को हाथ आने वाली रकम और बाजार में जरूरी वस्तुओं पर खर्च होने वाली रकम के बीच कुछ तालमेल सुनिश्चित करना तो जरूरी है। चाहे इसकी पहल सरकार की तरफ से हो या इंडस्ट्री के लीडर्स अपनी तरफ से कोई कदम उठाएं।
छुट्टियों की छुट्टी
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बड़ी समस्या पर ध्यान दिया है। उन्होंने कहा है कि अब महापुरुषों की जयंती और पुण्यतिथि पर राज्य के स्कूल बंद नहीं होंगे। उस दिन विद्यालयों में संबंधित महापुरुष पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। ऐसा ही सुझाव राजस्थान के राज्यपाल और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी दिया है। योगी आदित्यनाथ ने इस बात पर चिंता जताई कि छुट्टियों की भरमार के कारण स्कूलों में पढ़ाई पर असर पड़ रहा है। इस कारण स्कूलों में 220 दिनों का शैक्षणिक सत्र 120 दिन पर पहुंच गया है।
क्या मुख्यमंत्री राज्य के कार्यालयों में भी छुट्टी कम करेंगे? अगर ऐसा हो सका तो उत्तर प्रदेश देश भर के लिए एक मॉडल बन सकता है। अभी यहां देश भर में सबसे ज्यादा 38 सरकारी छुट्टियां हैं, जबकि केरल में 18, मध्य प्रदेश में 17, राजस्थान में 28 और बिहार में 21 सरकारी छुट्टियां हैं। सचाई यह है कि भारत जैसे विकासशील देश में जिस तरह की चुस्त-दुरुस्त कार्यसंस्कृति की जरूरत है, उसका शुरू से अभाव रहा है। एक तो ऐसे ही कामकाज में ढीलापन है, ऊपर से छुट्टियां हैं, जो काम की गति को रोकती हैं।
हम चीन या दूसरे देशों जैसी तरक्की जरूर चाहते हैं, पर यह नहीं देखते कि वहां लोगों ने कितनी कड़ी मेहनत की है। हमारे देश में तो छुट्टियां भी लोकलुभावन राजनीति का हिस्सा रही हैं। यूपी में इसका चरम रूप देखने को मिलता है। यहां विभिन्न जातियों को संतुष्ट करने और उन्हें साधने के लिए छुट्टी घोषित की जाती रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में जो भी सरकारें आईं , उन्होंने अपने वोट बैंक के आधार पर छुट्टियां घोषित कीं।
गौरतलब है कि कुछ समय पहले यूपी में कार्यरत आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने इतनी ज्यादा सरकारी छुट्टियों के खिलाफ जनहित याचिका दायर करके छुट्टियों के संबंध में नीति निर्धारित करने की अपील की थी। ज्यादा छु्टियों पर सवाल पहले भी उठाए गए हैं। प्रशासनिक सुधार आयोग ने 1971 में सुझाव दिया था कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर भी छुट्टियों का कोई मतलब नहीं है पर उसका सुझाव नहीं माना गया।
कई और समितियों व आयोगों ने छुट्टियां कम करने की सिफारिशें कीं पर किसी सरकार ने उन्हें मानने की दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। दरअसल सरकारें अपने कर्मचारियों को नाराज करने से बचती रहीं। हालांकि अब माहौल बदल रहा है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस ओर देश का ध्यान दिलाने की कोशिश की है। उन्होंने साफ कहा कि न खाली बैठूंगा, न बैठने दूंगा। सुप्रीम कोर्ट के कई जज इस बार गर्मियों की छुट्टियों में काम करने वाले हैं। निजी क्षेत्र छु्ट्टियों और कामकाज को लेकर पहले से ही सचेत रहा है, अगर सरकारी महकमा भी इस मामले में गंभीर हो जाए तो देश में विकास की गति और भी तेज हो सकती है।ईमानदार चुनाव, ईमानदार लोकतंत्र-हरीश खरे
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून, 1975 को एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री का निर्वाचन रद्द कर दिया था। यह देश में उथलपुथल मचाने वाला फैसला था। मामले की तह में था संसदीय लोकतंत्र का यह बुनियादी तकाजा कि कोई भी गैर बराबरी वाला लाभ किसी भी उम्मीदवार, समूह या पार्टी को चुनाव के दौरान नहीं मिलना चाहिए। हालांकि तब से कई इतिहासकारों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले को अतिवादी और जरूरत से ज्यादा करार दिया लेकिन फिर भी इस फैसले से लोकतांत्रिक चुनाव को निष्पक्ष बनाने की अभिलाषा तो सामने आ ही गई थी। उस लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास अभी तक जारी हैं और इस काम में आंशिक सफलता ही हाथ लगी है।
यहां यह भी याद करना महत्वपूर्ण होगा कि देश में पहले आम चुनाव चार महीने में कराए गए थे जो अक्तूबर 1951 से शुरू होकर फरवरी 1952 में सम्पन्न हुए थे। उस समय चुनाव आचार संहिता नहीं हुआ करती थी। केंद्र और राज्य सरकारें सामान्य ढंग से काम किया करती थीं। निर्वाचन आयोग का दायरा भी सिमटा हुआ था। लेकिन किसी ने भी चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर उंगली नहीं उठायी थी। इस तरह भारत ने लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत स्वीकार कर ली थी। विजेताओं और पराजितों ने प्रमाणित किया था कि चुनाव निष्पक्ष ढंग से जीता और हारा गया है। लेकिन देश 1952 में नेहरू के भारत से 1971 में इंदिरा गांधी के भारत में तबदील हुआ। राजनीतिक वर्ग तब तक आजादी के बाद की विश्वसनीयता खो चुका था। राजनीतिक पार्टियां सत्ता के लिए क्रूरतापूर्वक हथकंडे अपनाने वाली पार्टियों के तौर पर देखी जाने लगी थीं और राजनीतिक नेता, जिनमें वे नेता भी शामिल थे जो राष्ट्रीय सरकार की अगुवाई कर रहे थे, सत्ता लोलुप, स्वार्थी और आत्माभिमानी के तौर पर देखे जाने लगे थे। लोकतंत्र भद्र लोगों का खेल नहीं रह गया था।
जब इंदिरा गांधी के रायबरेली सीट से मार्च 1971 के चुनाव को खारिज कर दिया गया तो चुनाव में बराबरी के अवसर देने का राजनीतिक विचार प्रबलता से उभर कर सामने आया। कमी थी एक ताकतवर रेफरी की, जिसकी जेब में पीले और लाल कार्ड हों और उन्हें निकालकर दिखाने का माद्दा हो। और एक दिन टी. एन. शेषन नाम का एक शख्स निर्वाचन सदन में पहुंच गया, जिसने दिखाया कि चुनाव आयोग की ताकत क्या होती है। जब शेषन ने आयोग की संस्था और स्वायत्तता का दायरा बढ़ाया और राजनीतिक कार्यपालिका तक से टकराव लिया तो देश ने उन्हें समर्थन दिया। स्वायत्तता और प्रभाव की वह खोज अब भी जारी है।
संवैधानिक अधिकारों और समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट से समर्थन मिलने के बावजूद चुनाव आयोग का प्रदर्शन बहुत हद तक निर्वाचन आयोग के तीन निर्वाचन आयुक्तों की नेतृत्व क्षमता पर निर्भर रहा है। एक ऐसे राजनीतिक माहौल में जो लगातार अभद्र होता गया है, और पक्षपात की ओर बढ़ रहा है, जिसमें नेता लोग ज्यादा से ज्यादा अकड़ू होते जा रहे हैं, ऐसे में निर्वाचन आयुक्त जो कल तक तो नौकरशाह ही थे, ऐसी भूमिका में खुद को असहज महसूस करते हैं जहां उन्हें निष्पक्षता दिखानी होती है। ऐसे में सभी आयुक्त तो इस कार्य के लिए बने नहीं होते। जब एक मुख्यमंत्री ने इशारे से कहा कि जेम्स माइकल लिंगदोह के मुख्य चुनाव आयुक्त रहते निष्पक्षता की उम्मीद नहीं की जा सकती तो निर्वाचन आयोग की संस्था इतनी मजबूत थी कि उसने इस बयान को हिकारत से देखा था। लेकिन चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा में उस समय चार चांद नहीं लगे जब एक पूर्व आयुक्त ने पहले राज्यसभा का सदस्य बनना और बाद में केंद्रीय मंत्री बनना स्वीकर कर लिया। हर संस्था अपने नेतृत्व से शक्ति हासिल करती रही है। निर्वाचन आयोग के मामले में भी ऐसा ही है। सुखद बात यह है कि आयोग ने ऐसा पर्याप्त स्थान हासिल कर लिया है जहां आयुक्तों की निजी कमियां और कमजोरियां लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिभावक के तौर पर इसकी छवि को प्रभावित नहीं करतीं। यह वाकई एक प्रमुख लोकतांत्रिक मजबूती है। लेकिन यहां यह भी स्मरण रखना जरूरी है कि राजनीतिक वर्ग के पालतू होने से लेकर उनके ऊपर गुर्राने वाले के तौर पर यह बदलाव ऐसे काल में हुआ जब राजनीतिक कार्यपालिका कमजोर थी। जब राजनीतिक कार्यपालिका कमजोर होती है या अपने दुर्गुणों, संदेहों या आंतरिक मतभेदों से खुद को कमजोर कर लेती है तो दूसरी संस्थाएं अपना रुतबा दिखाने लगती हैं और अपना विस्तार भी कर लेती हैं। लेकिन संस्थाओं का यह संतुलन अभेद्य नहीं है। जब राजनीतिक सत्ता का नये सिरे से बंटवारा होता है तो संस्थाएं भी अपने स्थान और प्रभावशीलता के लिए खुद को ढालती हैं।
मई 2014 के बाद जब से जनता ने एक राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत दिया है तब से संवैधानिक संस्थाएं अपने स्थान के लिए खामोश संघर्ष कर रही हैं। इस संदर्भ में संस्थाओं के बीच की प्रतिस्पर्धा और चुनाव आयोग की भूमिका प्रमुख सरोकार का विषय हो जाती है। इलैक्ट्रॉनिक मतदान मशीनों से जुड़ा विवाद भीतर ही भीतर खौल रहे संघर्ष की अभिव्यक्ति है। चुनाव आयोग को ईवीएम के समर्थन में बोलना ही था। हालांकि उसने अपनी बात भद्र ढंग से रखी। शायद लगता है कि पराजितों की कुंठा सामने आ रही है। लेकिन चुनाव आयोग ने विभिन्न भाजपा शासित राज्यों में ईवीएम की गड़बड़ी की रिपोर्ट पर जो कुछ ये माना जाता रहा कि आलोचना जितनी गूढ़ होगी या पाठकों की समझ में नहीं आएगी, वो उतनी ही श्रेष्ठ होगी। इसके अलावा आलोचना पिछले तीन-चार दशक में एक और दुर्गुण का शिकार हुई और वो ये कि उसमें देशी-विदेशी विद्वानों के उद्धरणों की भरमार होती चली गई। आलोचक एक पंक्ति लिखते और फिर पूरे पृष्ठ का उद्धरण और फिर उसको जोड़ते हुए दो-तीन पंक्तियां और फिर लंबे उद्धरण। पूरी किताब पढने के बाद पाठक के मन में यह सवाल उठता कि आखिर लेखक क्या कहना चाहता था।
अभी हाल ही में सुधीश पचैरी की एक किताब हाथ लगी जिसके शीर्षक ने बेहद चैंकाया। इस पुस्तक का शीर्षक है रीतिकाल, सेक्सुअलिटी का समारोह। सुधीश पचैरी ने हिंदी में अपने लेखन के लिए बिल्कुल नए किस्म की भाषा गढ़ी, अंग्रेजी के शब्दों की बहुतायत के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की बोलियों से शब्दों को उठाकर इस्तेमाल करने की कला उन्होंने विकसित की। वहीं हिंदी के शब्द रहते हुए अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया गया। कई बार तो हमें भी लगता है कि पचैरी जी को अंग्रेजी के इतने ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि उन शब्दों के लिए हिंदी में सरल शब्द हैं। यह एक अलहदा विषय है जो अलग से संवाद की मांग करता है।
फिलहाल हम बात कर रहे थे कि सुधीश पचैरी की नई किताब जो रीतिकाल पर लिखी गई है। रीतिकाल के बारे में यह आम धारणा प्रचलित है कि उस काल खंड में कवियों ने स्त्री देह का, शृंगार आदि का रसपूर्ण वर्णन किया है। कई बार यह बात सामने आती है कि रीतिकालीन कवियों ने नायिकाओं के नख-शिख का वर्णन किया और उनके संघर्ष आदि के बारे में कुछ भी लिखने की जहमत नहीं उठाई। कहा तो यह जाता है कि हिंदी कविता में स्त्री देह की सत्ता स्थापित हुई। पचैरी की यह किताब इस तरह की चालू धारणाओं को निगेट करती है और स्त्री देह की सत्ता की गंभीरता से व्याख्या करते हुए सवाल उठाती है। इस किताब से सुधीश पचैरी ये भी स्थापित करते चलते हैं कि रीतिकाल में स्त्री देह का वर्णन और स्त्रियों के कामुक हाव-भाव का प्रदर्शन एक अलग तरह के विमर्श की मांग करता है। लेखक के मुताबिक श्देह इतिहास्य यानी देह पर वे श्दबाव्य जिनके जरिए जीवन की गतिविधि और इतिहास की प्रक्रियाएं एक दूसरे में हस्तक्षेप करती हैं और श्देह सत्ता्य का मतलब है ऐसी सत्ता जो मानवीय जीवन के रूपान्तरण में भूमिका निभाती है।
सुधीश पचैरी कहते हैं कि रीतिकालीन स्त्रियां अपने ढंग से अपने समय की प्रोफेशनल थीं। वे बहुत हद तक पुरुषों के ऊपर निर्भर और अधीन स्त्रियां थीं। भले ही आज की स्त्रियों की तुलना में उनके पास चुनाव की स्वतंत्रता नहीं थी। सुधीश पचैरी अपनी इस कृति में नायिका-भेद के समाज शास्त्र पर विस्तार से चर्चा करते हैं जो काफी पठनीय और दिलचस्प बन पड़ा है।
रीतिकाल पर अब से पहले जितने भी आलोचनात्मक लेख लिखे गए, वो आचार्य शुक्ल की स्थापना को ध्यान में रखते हुए लिखे गए। सुधीश उससे कुछ अलग हटकर इस काल की रचनाओं में सेक्सुअलिटी को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। जब वो बिहारी सतसई के आधार पर इस काल खंड में प्रवेश करते हैं तो वो ये कहते हैं कि उस वक्त का समाज यौन-व्यस्त समाज था, जहां दोहों में परिवार भी नजर आते हैं और कई बार नायक-नायिका का प्रेम-संवाद, गुरुजनों यानी परिवार के बड़े बूढ़ों की उपस्थिति के बीच भी होता था। यह संवाद नेत्र-भाषा और अनुभवों में होता था। आंखों पर बिहारी की सतसई का एक दोहा है दृ चलत देत आभरु सुनि, उहौ परोसिंह नाहध् लसी तमासे की दृगनु हांसी आसुन माही। मतलब कि नायिका किसी पड़ोसी पर अनुरक्त है। इस समय उसका पति विदेश जा रहा है, जिससे वो अपनी आंखों में आंसू भरे हुए है। इतने में ही उसने सुना कि उसका पति उसी पड़ोसी को घर संभालने का भार दे रहा है। यह सुनते ही, हर्ष के कारण, उसकी आंसू भरी आंखों में हंसी आ गई। यह एक सखी दूसरे सखी से कहती है। अब आंखों में हंसी की तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। सुधीश पचैरी की इस किताब से आलोचना की जड़ता पर प्रहार तो होता ही है। पचैरी की लाख आलोचना करें लेकिन उनकी स्थापनाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते।

भारतीय चिंतन की अविराम परंपरा का स्मरण-बी.पी. नारायण
आगरा में भारत सरकार का केंद्रीय हिंदी संस्थान है, जो हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास ही नहीं करता, हिंदी भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को प्रतिवर्ष पुरस्कृत-सम्मानित भी करता है। इस वर्ष साहित्य के लिए राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार चित्रा मुद्गल और पत्रकारिता के लिए गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा को दिए जाने का निर्णय हुआ है। उन्हें पांच-पांच लाख रुपये प्रदान किए जाएंगे। संस्थान त्रैमासिक पत्रिका श्गवेषणा्य प्रकाशित करता है, जिसमें देश-विदेश के प्रतिष्ठित हिंदी लेखक और विद्वानों के निबंध और चिंतनपरक लेख प्रकाशित किए जाते हैं। संस्थान के संरक्षक डॉ. कमल किशोर गोयनका के परामर्श पर श्गवेषणा्य का ताजा अंक मनीषी और अप्रतिम निबंधकार पंडित विद्यानिवास मिश्र पर केंद्रित किया गया है।
श्गवेषणा्य के प्रधान संपादक प्रो. नंद किशोर पांडेय ने ठीक ही लिखा है कि पं. विद्यानिवास मिश्र का स्मरण भारतीय चिंतन परंपरा के अविरल, अभिनव तथा अविराम परंपरा का स्मरण है।
श्गवेषणा्य के श्पं. विद्यानिवास मिश्र विशेषांक्य के अतिथि संपादक दयानिधि मिश्र ने लिखा है कि आधुनिक ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में प्रमुख विद्यानिवास मिश्र के लेखन की परिधि व्यापक है। वे पद्मभूषण से सम्मानित हुए और राज्यसभा के नामित सदस्य बने। भोजपुरी के ग्रामीण अंचल से आने के कारण गांव की मिट्टी की सोंधी गंध उन्हें प्रिय थी। रीवां, गोरखपुर, लखनऊ, बनारस, आगरा और दिल्ली में जीवन का बड़ा हिस्सा बिताया। विदेश प्रवास भी किया, पर बनारस उन्हें सर्वाधिक प्रिय रहा।
एक लेखक के रूप में मिश्र जी का साहित्य की दुनिया में प्रवेश निबंध संग्रह श्छितवन की छांह्य से हुआ। उसके बाद वे लगभग छह दशक तक अनवरत सक्रिय रहे। जीवन की विविधताओं जैसा ही उनका रचना जगत भी बहुआयामी है। इनमें निबंध, काव्य, अनुवाद, कोश निर्माण, लोक साहित्य, संपादन आदि के अंतर्गत विविध प्रकार के साहित्य का सृजन किया। सन् 1926 में जन्मे मिश्र जी का एक दुर्घटना में सन् 2005 में देहावसान हो गया।
विशेषांक का आरंभ शिवनारायण के आलेख श्लोक संस्कृति का सौंदर्य्य से हुआ है, जिसमें उन्होंने पं. विद्यानिवास मिश्र के सन् 1953 में प्रकाशित ललित निबंधों के पहले संग्रह श्छितवन की छांह्य पर आत्मीयता से लिखा है- श्छितवन की छांह्य के सत्रह निबंधों में अधिकांश भावात्मक हैं, जिनमें ग्रामीण चेतना और उसकी संस्कृति के दर्शन हो जाते हैं, जिसकी शैली में एक प्रकार के पांडित्य और सहजता के अनूठे मेल लक्षित करते हुए अज्ञेय ने टिप्पणी की है कि श्सर्जनात्मक गद्य के रचयिताओं में विद्यानिवास मिश्र अग्रगण्य हैं।
पूरे अंक में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शिवप्रसाद सिंह, गिरिराज किशोर, रामदरश मिश्र, रामनारायण उपाध्याय, कृष्णबिहारी मिश्र, कैलाश वाजपेयी, शीन काफ निजाम, मैनेजर पांडेय, अच्युतानंद मिश्र, बच्चन सिंह, बलदेव बंशी, उदयप्रताप सिंह, प्रयाग शुक्ल, विश्वनाथ सचदेव, सूर्यकांत बाली, कृपाशंकर चैबे, भगवान सिंह, अनामिका, वागीश शुक्ल, विश्वनाथ सचदेव, एस.शेषारत्नम, रेवती रमण, श्यामसुंदर दुबे, श्राराम परिहार, प्रकाश मनु, अनिल राय, नीरजा माधव, प्रेमशंकर, फूलचंद मानव, अमरनाथ अमर, नर्मदाप्रसाद उपाध्याय, सूर्यबाला, प्रकाश मनु और भारती गोरे जैसे देश के करीब सौ लेखकों का विद्यानिवास मिश्र के साहित्य और जीवन पर केंद्रित अध्ययन-मनन शामिल है। उनके बारे में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि श्विद्यानिवास जी के लिए लोक का आकर्षण पार्थिव के प्रति समर्पण है।

 

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